SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनविद्या ____133 133 7. प्रसुहकम्मु जह अणुसरइ, तउ णिम्वइ होइ विणासु । 8. दयविणु धम्मु ण होइ । 9. जीवचलंतहं को घरइ, को सरणहं रक्खेइ । 10. खमा सरीरहं प्राभरण, संजमु जासु सिंगार। आदि । बहुत से दोहड़े रचना में ऐसे हैं, जिन्हें सुभाषित की तरह प्रयोग किया जा सकता है, निदर्शनार्थ दोहड़ा 38, 40, 42, 44, 48, 49 एवं अन्य । कुछ मुहावरे भी दर्शनीय हैं - 1. सिम्झियउ-सफल होने के पक्ष में। इत्यादि । पाठालोचन तथा अनुवाद रचना का पाठ पाडुलिपि विभाग, श्रीमहावीरजी में उपलब्ध एक गुटके में लिपिकृत पाठ के आधार पर तैयार किया गया है । मूल पाठ ज्यों का त्यों रखा गया है किन्तु अनुवादक को जहां भी पाठ अशुद्ध ज्ञात हुआ उसे कोष्ठक में रखकर अनुमानित शुद्ध पाठ के आधार पर अनुवाद किया गया है, तथा उसके कारणों का उल्लेख अन्त में पाद-टिप्पणी में कर दिया है। इसमें भूल होने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। विज्ञ पाठकों से अनुरोध है कि जहां भी ऐसा हुआ हो उससे अनुवादक को अवगत कराने की कृपा करें जिससे कि भविष्य में इसे सुधारा जा सके। अनुवाद की भाषा सरल एवं सुबोध रखने का प्रयत्न किया गया है। आशा है पाठकों को हमारा यह प्रयास रुचिकर लगेगा। इस पर अपनी सम्मति प्रेषित कर हमारा उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करने की कृपा करें ऐसा मेरा उनसे विनम्र अनुरोध है। -भंवरलाल पोल्याका
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy