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________________ 132 जनविद्या जयपुर (वर्तमान में जनविद्या संस्थान, श्री महावीरजी का पाण्डुलिपि विभाग) के जिस ग्रंथ का उल्लेख किया है वह यह ही है । यथार्थ में इसका नाम 'प्रोणम चरितु' है जो स्वयं रचना के दोहा सं. 66 के 'प्रोणमचरितु पयासियउ' पद से स्पष्ट है। डॉ. शास्त्री ने 'प्रोणम' को 'उणम' पढ़ा है जो गलत है। पाडुलिपि में यह शब्द 'उणम' इस प्रकार लिखा है। यहां 'ई' को 'उ' पढ़ लेने के कारण उनसे यह भूल हुई है। पुरानी कई पाडुलिपियों में 'ओ' को 'ई' इस प्रकार लिखा जाता था। इस ही पाडुलिपि के प्रारम्भ में 'मों नमः सिद्धेभ्यः' को 'उ नमः सिद्धेभ्यः' लिखा गया है। पूरी पाडुलिपि में 'नो' को 'ओ' इस प्रकार लिखा कहीं नहीं मिलता। 'प्रोणम' सार्थक शब्द है जो प्राकृत के 'प्रोणग्रं' का अपभ्रंश में परिवर्तित रूप है जिसका संस्कृत में रूपान्तरण 'अवनतम्' होता है । इस नाम से दक्षिण भारत में एक त्योहार भी मनाया जाता है। इससे पहले 'बुद्धिरसायण' शब्द रचना की अन्तिम पुष्पिका से ही प्राप्त होता है जो रावण का प्रतीक है । ग्रंथ में रावण के पतन के कारण का दिग्दर्शन किया गया है अत: ग्रंथ का 'बुद्धिरसायणप्रोणमचरितु' नाम विषयानुरूप है । कर्ता का नाम डॉ. शास्त्री ने अपनी उक्त पुस्तक के पृष्ठ 182 की संख्या 37 पर 'जिणवरदेव' को 'बुद्धिरसायण' का कर्ता लिखा है जो भी सही नहीं है । ऐसा शायद उन्होंने दोहा 67 एवं ग्रंथ के अन्तिम पद 'जिणवरु एम भणेइ' को देख कर ही लिखा ज्ञात होता है। पूरी रचना शायद उन्होंने ध्यान से नहीं पढ़ी क्योंकि रचनाकार ने दोहा 65 के 'णेपिसाएं भासियो' इस पद में स्पष्ट रूप से श्लेष में अपने नाम का संकेत किया है। रचनाकाल एवं अन्य रचना में उसके रचनाकाल का कहीं उल्लेख नहीं है फिर भी भाषा की दृष्टि से वह 14वीं, 15वीं शताब्दी के बाद की ज्ञात नहीं होती। रचना-स्थान के सम्बन्ध में भी कोई उल्लेख नहीं होने से कुछ कहा नहीं जा सकता। रचना की भाषागत विशेषता यह है कि उसने संज्ञा शब्दों का जहां उकारान्त प्रयोग किया है वहां भूत कृदन्त के शब्दों के साथ 'नो' (उ) परसर्ग का प्रयोग किया है इससे भाषा विज्ञान के पण्डितों को इसके रचनाकाल एवं देश के किस भाग में रचना हुई इस सम्बन्ध में कुछ अनुमान करने में सहायता मिल सकती है । रचना की भाषा प्रवाहपूर्ण एवं अलंकारमय है । सूक्तियों, लोकोक्तियों तथा मुहावरों का प्रयोग रचना में बहुलता से है । यथा - 1. विहिणालिहिय जि अक्खरह, भंजण कवण समत्थु । 2. जो होणउं सो होइ। 3. दयउ उलंघत को धरइ, जगहि वलियउ कोइ। 4. बत्तूरहं फल चक्खिकरि, सयलउं बुद्धि हरेइ । 5. जं किज्जइ तं पावियए । 6. जागतहं चोरहं मुसिमो।
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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