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________________ जैनविद्या 111 दुर्जन गुणों और दोषों को जानता हुअा भी (अपनी) पादत के कारण (गुणों को) ढ़कता है (और) दोषों को प्रकट करता है । ___ परगुणों का तिरस्कार करने की आदत के कारण वह (दुर्जन) भी हताश (होकर) (मेरे काव्य में दोष ढूंढने के) अवसर पर निश्चय ही मारा मारा फिरता है (फिरेगा)। (इसलिए) (मैं) हाथ जोड़ करके विद्वत् समूह का स्मरण करता हूं (तथा) निष्पक्ष जन की प्रार्थना करता हूं। (काव्य में) अपशब्द को देखकर मन में मत रखना, (उसको) हटाकर सुन्दर पद को रख लेना। कवि का एक गुण काव्य की रचना करना है (और) दूसरा कोई निपुण (व्यक्ति) (काव्य की) समीक्षा करता है । (ठीक ही है) एक पत्थर स्वर्ण को उत्पन्न करता है (तथा) दूसरा कोई (पत्थर) उसकी (स्वर्ण की) परीक्षा करता है । ' वह कोई (व्यक्ति) जो दोनों प्रकार की बुद्धि (काव्य रचना और काव्य समीक्षा) को (धारण करता है), (वह) दुर्लभ (है)। फिर भी यदि ऐसा (कोई व्यक्ति) विद्यमान है (जो) कानों के लिए सुखकारी (स्वर से) काव्य को पढ़ता है (और) मन में खिलता हुआ निज वाणी में काव्य के अर्थ को स्थापित करता है (और जिसके द्वारा) (काव्य) रस और भावों से विद्वान् मनुष्य तृप्त किये गये (हैं), वह स्वयंभू को छोड़ कर अन्य कौन है ? वह भी यदि गर्व नहीं करता है (तो) (समझना चाहिए कि) उसके कारण (ही) पवन त्रिभुवन को धारण करता है । कयमण्णवण्णपरियत्तणु वि पयडबंध संघाहि । प्रकहिज्जमाण कइ चोरु जणे लक्खिज्जइ बहुजाहिं ॥ 1.2.14-15 कयप्रण्णवण्णपरियत्तणु [(कय) भूकृ अनि-(अण्ण) वि-(वण्ण)-(परियत्तण) 1/1] वि (अ)=यद्यपि पयडबंधसंघाणहिं [(पयड)-(बंध)-संघाण) 3/2] अकहिज्जमाणु (अकह- इज्ज+माण) वक कर्म 1/1 कइ (कइ) 1/1 चोरु (चोर) 1/1 जणे' (जण)7/1 लक्खिज्जइ (लक्ख) वकृ कर्म 3/1 सक बहुजाहिं (बहुजाण) 3/2 । *कभी-कभी सप्तमी का प्रयोग तृतीया अर्थ में पाया जाता है। __ (हे. प्रा. व्या., 3-135)। यद्यपि (जिस प्रकार) चोर मनुष्य द्वारा अन्य रूप से वेश-भूषा परिवर्तन की गई है, (तो भी) (वह) प्रत्यक्ष (चोरी के) साधनों के (उपयोग) के कारण बिना कहे जाते हुए (ही) ज्ञानियों द्वारा (चोर) समझ लिया जाता है, (उसी प्रकार) यद्यपि (किसी) कवि जन द्वारा (काव्य में) अन्य रूप से वर्ण परिवर्तन किया गया है, (तो) (भी) (वह) प्रत्यक्ष श्लोक-स्वरूप के कारण बिना कहे जाते हुए (ही) ज्ञानियों द्वारा (साहित्यिक चोर) समझ लिया जाता है।
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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