SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जनविद्या 101 इस संबोधन को सुनकर भवदेव को सत्य का ज्ञान हुमा, उसके मन के विकल्प-जाल टूट पड़े । उसे सन्मार्ग पर प्राता देख नागवसू ने अपना परिचय दिया। भवदेव का मन वैराग्य से भर उठा । वह अब मन से दीक्षित हुप्रा । 2.17-9 यह वर्णन मर्मस्पर्शी बन पड़ा है । पहले नागवसू मुनि भवदेव की प्रशंसा करती है, उसके बाद अनेक उदाहरणों से हेय-उपादेय, योग्य-अयोग्य का बोध कराती है और फिर मानवशरीर की वृद्धावस्था का हृदयस्पर्शी चित्रण करके मुनि को वैराग्य उत्पन्न कराने का हरसंभव प्रयास करती है। __यहाँ विशेषतः ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि सभी धार्मिक साहित्य-सर्जकों (मुनियों-प्राचार्यों) ने नारी को प्रात्मशोधन के मार्ग में सदैव एक बाधा ही माना है किन्तु वीर कवि ने नागवसू का यह एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत कर परम्परा से चले पा रहे इस पूर्वाग्रह को असत्य एवं थोथा साबित किया है और बताया है कि आत्मदौर्बल्य, चारित्रिक शिथिलता तथा सन्मार्ग से स्खलन का कारण नारी (अथवा अन्य कोई भी) नहीं अपितु प्राणी की अपनी भावनाएं हैं । यथार्थतः जैनधर्म को सही रूप में हृदयंगम करनेवाले इस तथ्य को भूलकर कभी भी अपना दोष दूसरे के सिर नहीं मंढ सकते । शिवकुमार का वैराग्य प्रसंग तीसरा वैराग्य प्रसंग वीताशोक नाम की नगरी के राजा चक्रवर्ती महापन व उनकी रानी धनमाला के पुत्र युवराज शिवकुमार (पूर्वभव के भवदेव) का है। एक श्रेष्ठी के घर से बाहर जाते हुए मुनिराज को देखकर युवराज शिवकुमार को ऐसी स्मृति हुई कि 'इन मुनिवर को पूर्व में भी देखा है' और उन्हें अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो गया जिससे प्रत्यभिज्ञान हुआ कि ये मुनिराज पूर्वभव में मेरे बड़े भाई थे । ये मुमि भवदत्त थे और मैं मुनि भवदेव । अपने पूर्वभव स्मरण से उन्हें संसार की असारता की प्रतीति हुई और 'वैराग्य' उत्पन्न हो गया। उन्होंने अपने मित्र से दीक्षा धारण करने की इच्छा व्यक्त की । पिता को जब उनका मन्तव्य ज्ञात हुआ तो उन्होंने पुत्र को दीक्षा व वनवास से रोका और कहा-इन्द्रियों का निग्रह ही तप है और वह घर में भी सिद्ध हो सकता है। यदि मन में राग-द्वेष नहीं हैं तो बन में तप तपकर ही क्या करोगे ? यदि हृदय में कषायादि हैं तो वहां (वन में) भी तपश्चरण कैसे साधा जा सकेगा ? इसलिए मेरी प्रार्थना मानो और घर में रहते हुए ही व्रत-नियम धारण करो। ............"और युवराज शिवकुमार ने घर में रहकर ही साधना की, वनवासी 3.6-7 ___ यह इस वैराग्य प्रसंग की अपूर्वता है । प्रायः सभी वैराग्य प्रसंगों की परिणति वनवास और मुनिदीक्षा में दिखाई देती है परन्तु इस प्रसंग के नायक शिवकुमार ने 'घर में ही वैरागी' उक्ति को चरितार्थ किया है। ___ इस प्रसंग की अन्य विशेषता है कि इसमें शिवकुमार को किसी अन्य प्राणी ने संबोधित नहीं किया न किसी का उपदेश सुना, मात्र पूर्वभव की स्मृति से ही उन्हें वैराग्य-उद्भूत हो गया।
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy