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________________ जनविद्या 99 पुराणों व चरितग्रन्थों में वैराग्य प्रसंगों की बहलता पाई जाती है क्योंकि ग्रंथ-सर्जक इन प्रसंगों के द्वारा पाठकों को 'वैराग्य-भावना' से प्राप्लावित कर प्रात्मशोधन के लिए प्रेरित करना चाहते हैं। हमारा विवेच्य ग्रंथ अपभ्रंश भाषा के कवि वीर कृत 'जम्बूसामिचरिउ' भी चरितग्रंथों की इस विशिष्टता से परिपूर्ण है । इसमें भी अनेक वैराग्य प्रसंग प्रस्फुटित हैं जिनमें कुछ प्रमुख वैराग्य-प्रसंग हमारे लेख के विषय हैं। भववत्त का वैराग्य प्रसंग भवदत्त अग्रहार के निवासी आर्यवसु व उनकी पत्नी सोमशर्मा का बड़ा पुत्र था। जब वह अठारह वर्ष का हुआ तब उसके पिता आर्यवसु कुष्टरोग से पीड़ित हो गये। शीघ्र ही रोग ने अत्यन्त उग्र रूप धारण कर लिया। रोग-मुक्त होने की कोई आशा शेष नहीं रही तब मार्यवसु ने प्रात्मदाह कर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। पति-वियोग सहने में असमर्थ उनकी पत्नी सोमशर्मा ने भी पति का साथ दिया और जीवन निःशेष किया । अठारह वर्ष का नवयुवक भवदत्त इस कठोर प्राघात से पीड़ित था। कुछ दिनों पश्चात् उस गांव में सुधर्ममुनि का ससंघ पदार्पण हुआ। उन्होंने सबको धर्मोपदेश दिया और संसार की प्रसारता का बोध कराते हुए कहा - 'यह जगत् इन्द्रियों के समान चंचल है, विपरीत ज्ञान व मोह के अंधकार से मंधा है। जीवन व्यापार, सांसारिक कर्तव्यों में लिप्त, कामातुर, सुख की तृष्णा से युक्त है। प्राणी दिन सांसारिक कामों में खो देता है और रात निद्रा में गंवा देता है । (प्राणी) मरने से भय खाता है अतः उससे बचता, लुकता-छिपता है किन्तु फिर भी उससे बच नहीं पाता । शिवसुख चाहता है पर उसे (मिल) नहीं पाता फिर भी यह मनुष्यरूपी पशु भय और काम के वशीभूत होकर सन्तप्त रहता है । बहुत दुःख से परिग्रह एकत्रित करता है, परिग्रह से प्रात्मा को भी बहुत क्लेश होता है । सहज निःसंगवृत्ति (जो अत्यन्त सहज है, जिसे पालन करने में कोई क्लेश, दुःख नहीं उठाना पड़ता है, वह) इसे भारी एवं दुष्कर लगती है। इसके मन को कभी सन्तोष नहीं होता। विपरीत ज्ञान में जीते हुए लोग यदि नियति से देह के भीतर (मात्मा की भोर) प्रवृत्त होते भी हैं तो अभिलाषा में पड़ा यह मन बाहर ही (अटका) रह जाता है और अपना जीवन कौए उड़ाने जैसे व्यर्थ कार्यों में गंवा देता है।' ___2.5-7 यह वैराग्य वर्णन बहुत अधिक हृदयस्पर्शी नहीं बन पड़ा है। पाठक इस वर्णन से अधिक प्रभावित नहीं हो पाता। मातृ-पितृ शोक से सन्तप्त भवदत्त की मनःस्थिति ही उस समय ऐसी थी कि उस
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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