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________________ 98 जैनविन 2. जैन भूगोल-(पृथ्वी व लोक-प्रलोक प्रादि का वर्णन) 3. जैन नीतिशास्त्र या प्राचरणशास्त्र—(कर्तव्य-अकर्तव्य का वर्णन) तथा 4. जैन तत्त्वविज्ञान-(लोक में विद्यमान द्रव्य, पदार्थ, वस्तु व्यवस्था का वर्णन) जैन मनीषा इन्हें क्रमशः प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग व द्रव्यानुयोग इन चार विशिष्ट संज्ञानों से अभिहित करती है । ___इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रथमानुयोग (इतिहास) के ग्रन्थों में महापुरुषों का जीवनचरित निबद्ध होता हैं। जिन ग्रंथों में अनेकानेक महापुरुषों के चरित गुम्फित होते हैं पौर सभी समानरूप से प्रमुखता लिये होते हैं उन्हें 'पुराण' कहा जाता है और जिनमें किसी एक विशिष्ट व्यक्ति के चरित को ही प्रमुखता से निरूपित किया जाता है वे 'चरितग्रन्थ' कहलाते हैं । ये 'पुराण' व 'चरितग्रंथ' साहित्य की दोनों विधामों-गद्य एवं पद्य में निरूपित हैं । ___ चरितग्रंथों में उस विशिष्ट पुरुष (जिसने आत्मशोधन कर स्वतन्त्रता एवं स्वावलम्बन पा लिया है अथवा पाने वाला है) का जीवन परिचय, उसका आचरण, उसके जीवन की प्रमुख, महत्त्वपूर्ण व शिक्षाप्रद घटनाओं तथा प्रेरक प्रसंगों का विशद वर्णन होता है जो प्रात्मशोधन की दीर्घ प्रक्रिया में उत्सुक/जिज्ञासु/तत्पर/रत जन-सामान्य को प्राकृष्ट व प्रेरित करते हैं। सर्वविदित तथ्य है कि स्वावलम्बन पाने के लिए 'पर' का अवलम्बन छोड़ना होगा, स्वतन्त्रता पाने के लिए 'पर' तन्त्र को त्यागना होगा। इसीलिए जैन धार्मिक ग्रंथों का अभिप्रेत प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी रूप से प्राणो को पर-पदार्थों से विमुख कर 'स्व' की प्रोर अभिमुख करा देना रहा है। जब प्राणी आत्मशोधन के लिए उत्सुक होता है तब वह स्वाभिमुख होने लगता है । जब वह 'स्व-भाव' का जिज्ञासु होता है तब वह 'स्व' तथा 'पर' का भेद तथा 'पर' पदार्थों की क्षणिकता, अस्थिरता आदि लखकर एवं लक्ष्य प्राप्ति में उनकी अनुपादेयता जानकर उनके प्रति उदासीन होने लगता है । 'पर-पदार्थों' के प्रति उदासीनता व विमुखता की 'भावना ही तो 'वैराग्य' की दशा है, स्वाभिमुख होने की उत्सुकता ही तो 'वैराग्य' की जननी है। यह 'वैराग्य' स्वतः भी उद्भूत होता है और परतः भी। कभी प्राणी को स्वतः ही 'पर' पदार्थों की प्रसारता, अनुपयोगिता की अनुभूति होने लगती है तो कभी किसी सद्गुरु के धर्मोपदेश से, शास्त्रपारायण से, किसी मनिष्ट/अप्रिय घटना के दर्शन से या अन्य किसी माध्यम से इनकी निस्सारता/निरर्थकता का आभास होता है/कराया जाता है। भगवान् आदिनाथ व नेमिनाथ आदि के उदाहरण इसके द्योतक हैं।
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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