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________________ दुर्जन : महाकवि धनपाल की दृष्टि में परछिद्दसएहि वावार जासु, गुणवंतु कहिमि कि कोवि तासु । अवसद्द गवेसइ वरकईहि, दोसहं अम्भासई महसईहि । एक्कोवि रयणभंजणसमत्यु, एक्कोवि करइ वत्युवि प्रवत्थु । अणुविण वासइ.बुव्वासवासु, अप्पणउंण कोइवि कहिमि तासु । एउ सक्कइ देखिवि परहो रिखि, एउ सहइ सउरिसहं गुणपसिद्धि । । जगडंतु भमई सज्जनहं विन्दु, विवरीउ गिरंकुसु जिह गइंदु । अर्थ-परछिद्रान्वेषण जिसका व्यापार है, जो श्रेष्ठ काव्य में भी अपशब्द ढूंढता है . और महासतियों के भी दोष लगाने की जिसकी आदत है, क्या कोई भी कहीं भी उसके । लिए गुणवान् हो सकता है ? ऐसा एक भी व्यक्ति रात्रिभंग (निद्रामंग) करने में समर्थ होता है, वह वस्तु को भी अवस्तु कर देता है । वह रात-दिन दुर्व्यसनों में लगा रहता है, कोई भी, कभी भी उसका अपना नहीं होता । वह दूसरों की समृद्धि और सत्पुरुषों के गुणों की प्रसिद्धि सहन नहीं करता, वह सज्जनवृन्दों के साथ हाथी की तरह निरंकुश होकर झगड़ता रहता है। भवि. 1.3.5-10
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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