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________________ जैन विद्या 37-- व्यक्ति आस्थावान हैं। प्रेमी के दूरदेशस्थ होने पर कौए को उड़ाकर उसके वृत्त विदित होने का भाव उल्लिखित है ।32 कथा में बहु-विवाह के प्रति अनास्था उद्घाटित हुई है । पोयणपुर के राजा का चरित्र तत्समय के सामंतों के विचार-प्रवाह का प्रतीक है। इस प्रकार लोकपक्ष का सबल जीवन-दर्शन अभिव्यंजित है। उपर्यंकित विवेचनोपरान्त हम कह सकते हैं कि अपने युग की सामाजिक संस्कृति का उत्कृष्ट चित्रांकन करनेवाले इस काव्य की भाषा महत्त्वपूर्ण है। कवि का वस्तुवर्णन प्रशंस्य है, चरित्र-चित्रण का निर्वाह कुशलतापूर्वक हुआ है। भावाभिव्यंजना और अलंकारों द्वारा अलंकृत समीक्षित काव्य कविश्री की उच्चप्रतिभा, अनुभव और अध्ययन का परिचायक है। अतएव वस्तुविन्यास, चरित्र-चित्रण और वस्तुवादीकोण के कारण 'भविसयत्तकहा' एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक लोकचरित काव्य है । .. वस्तुतः कविश्री धनपाल आख्यान-साहित्य के प्रणयन में निरुपमेय हैं । कवि ने इस काव्य को लिखकर परम्परागत ख्यातवृत्त नायक पद्धति को तोड़कर अपभ्रंश में लौकिक नायक की परम्परा का प्रवर्तन किया है । कविश्री स्वयं अपनी कृति को 'चरित्र-कीर्तन' की संज्ञा से अभिहित करते हैं 133 प्रथम श्रेणी के अपभ्रंश कवियों में कविश्री धनपाल का स्थान महनीय है तथा अपभ्रंश काव्यों में 'भविसयत्तकहा' की ख्याति प्रसंदिग्ध है। 1. (1) हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन, भाग 2, श्री नेमीचन्द्र जैन ज्योतिषाचार्य, पृष्ठ 208 (2) दि पउमचरिउ एण्ड दि भविसयत्तकहा, प्रो. भायाणी, भारतीय विद्या (अंग्रेजी), भाग 8, अंक 1-2, सन् 1947, पृष्ठ 48-50 . (3) आदिकालीन हिन्दी साहित्य शोध, डॉ. हरीश, पृष्ठ 5 2. . (1) धक्कड वणिवंसे माएसर हो समुन्भवणि । (भविसयत्तकहा 22.9) (2) जैन शोध और समीक्षा, डॉ. प्रेमसागर, पृष्ठ 87 (3) अपभ्रंश काव्य परम्परा और विद्यापति, डॉ० अम्बादत्त पंत, पृष्ठ 220 (4) प्राचीन जैन लेख संग्रह, सम्पा० मुनि जिनविजयजी, पृष्ठ 86, 95, 122 3. (1) भविसयत्तकहा-16.8, 20.9 (2) जैन साहित्य और इतिहास, नाथूराम प्रेमी, पृष्ठ 467 4. (1) धनपाल ने स्वयं को सरस्वती का पुत्र कहा है “सरसइ बहुलद्ध लहावरेण"-भविसयत्तकहा 1.4 (2) अपभ्रंश काव्यधारा, डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, पृष्ठ 12 5. (1) अपभ्रंश कथाकाव्यों की भारतीय संस्कृति को देन, डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल, अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ, पृष्ठ 155
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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