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________________ जनविद्या 35 (पृ. 63), तुरंतउ (पृ. 64), जं बित्तउ-जो बीता (पृ. 65), पप्पडा-पापड (पृ. 84), विहाणि-विहान-प्रातःकाल (पृ. 92)। इस प्रकार "भविसयत्तकहा" भाषानुरागियों की दृष्टि से महनीय है। संवाद-योजना इस कथा काव्यकृति में प्रबंधकाव्य के उपयुक्त संवाद योजना हुई है। संवादों की प्रचुरता है। इनमें नाटकीयता, अभिनेयता, वाक्पटुता, कसावट, मधुरता तथा हाव-भावों का प्रदर्शन एवं यथास्थान व्यंग्य का समावेश हुआ है। संवाद कथानक को गतिमान करने के साथ ही वातावरण तथा दृश्य को भी नेत्रों के समक्ष रूपायित कर देते हैं। इन संवादों की कसावट, सरसता तथा मधुरता अपनी विशेषता रखती है। भविष्यदत्त की माता के वात्सल्यपूर्ण उद्गारों के प्रति प्रस्तुत कथन देखिये भविसयत्तु विहसेविण जंपइ तुम्हहं भीरत्तरिमण समप्पइ । पइयारि वामोहु ण किज्जइ समवयजणि पोढत्तण हिज्जइ ॥ 3.12.1-2 काव्य-रूढ़ियां कविश्री धनपाल की यह काव्य संरचना कथानक-रूढ़ियों और काव्य-रूढ़ियों से भी समृद्ध है। प्रस्तुत काव्य में निम्न सात काव्य-रूढ़ियां प्रयुक्त हुई हैं । यथा1. मंगलाचरण, 2. विनय प्रदर्शन, 3. काव्य रचना का प्रयोजन, 4. सज्जन-दुर्जन वर्णन, 5. वंदना (प्रत्येक संधि के प्रारम्भ में स्तुति या वंदना), 6. श्रोता-वक्ता शैली, 7. अन्त में प्रात्मपरिचय । उक्त सभी रूढ़ियां 'संदेशरासक', 'पद्मावत' और 'रामचरितमानस' आदि ग्रन्थों में कतिपय परिवर्तन के साथ व्यवहृत हुई हैं। प्रलंकार-योजना अलंकारों का सहज प्रयोग कवि-कृति में हुआ है । उपमा, परिणाम, सन्देह, रूपक भ्रांतिमान, उल्लेख, स्मरण, अपह्नव, उत्प्रेक्षा, तुल्ययोगिता, दीपक, दृष्टान्त, प्रतिवस्तूपमा, व्यतिरेक, निदर्शना और सहोक्ति आदि अलंकार कवि-काव्य में प्रयुक्त हुए हैं ।27 उपमा में मूर्त और अमूर्त दोनों रूपों में उपमान का प्रयोग किया गया है विक्खइ रिणग्गयाउ गयसालउ णं कुलतियउ विरणासियसीलउ। पिक्खइ तुरयवलत्थपएसइं पत्थरणभंगाइ व विगयासइं ॥ 4.10.4 नारी-सौन्दर्य का वर्णन करता हुआ कवि कहता हैगं वम्महभल्लि विधणसीलजुवाणजणि । 5.8.9
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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