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________________ जैन विद्या संवेद्य र सम्बद्ध होती है। धार्मिकता के साथ कथावस्तु में सामाजिक समस्याओं का • भी संस्पर्श रहता है । धार्मिक चरित्र को लेकर लिखी काव्य-रचना आध्यात्मिक चरितकाव्य कहलाती है । 30 1 अपभ्रंश के मध्यकालीन अर्थात् दसवीं शती 1 के धक्कड़ वैश्य, दिगम्बर धर्म अनुयायी, श्रेष्ठकवि घनपाल विरचित एकमात्र समीक्ष्य कथाकाव्य “भविसयत्तकहा "5 ध्यात्मिक चरितकाव्य है । इस कथाकाव्य में धार्मिक बोझिलता नहीं है । इसमें तो लौकिक जीवन के एक नहीं अनेक मनोरम चित्र गुम्फित हैं । इसका दूसरा नाम 'सुयपंचमीकहा ' अथवा 'श्रुतपंचमीकथा' है । इसमें ज्ञानपंचमी ( कार्तिक शुक्ल 5) के फल-वर्णनस्वरूप भविसयत्त की कथा बाईस संधियों में है । कथा का मूलस्वर व्रत रूप होते हुए भी जिनेन्द्र- भक्ति से अनुप्राणित है । भविसयत्त की कथा वस्तुतः कवि कृति से पूर्व प्रचलित और लोकप्रिय थी । कविश्री धनपाल ने उसे धार्मिक काव्यानुकूल परिवर्तन कर सुन्दर बनाया तथा वह धार्मिक वातावरण के कारण जैन परिवारों में ग्राह्य हुई और काव्यसौन्दर्य से जैनेतर समाज में पठनीय बनी । धनपाल ने यद्यपि इसको 'कहा ' ( कथा ) ही कहा है परन्तु यह निश्चित रूप से महाकाव्य की कोटि के अन्तर्गत रखा जा सकता है क्योंकि इसमें प्रायः सभी काव्योपम गुरण दृष्टिगत हैं । 8 डॉ. विटरनिट्ज इसे रोमांचक महाकाव्य स्वीकारते हैं । प्रस्तुत शोधालेख में समीक्ष्य कथाकाव्य 'भविसयत्तकहा' के साहित्यिक महत्त्व का उद्घाटन करना हमें अभीप्सित है । रंग देकर व कथावस्तु 'भविसयत्तकहा' एक व्यापारी पुत्र भविसयत्त की कथा है। इसको तीन भागों में बांटा जा सकता है । प्रथम भाग में काव्य का नायक भविसयत्त के दुष्कर कार्यों, जोखिमों और प्राकस्मिक घटनाओं का वर्णन है । अपने विश्वासघाती विमातृज बंधुदत्त द्वारा एक निर्जन द्वीप में परित्यक्त भविसयत्त एक वीरान नगर में पहुँचता है और एक देवता की सहायता से एक राजकुमारी का पता पाकर उससे विवाह करके बारह वर्ष सुखपूर्वक व्यतीत करता है । एक समय जब वह मातृभूमि के लिए लालायित है संयोग से उसके मातृज का जहाज उसी द्वीप में आकर ठहरता है । वह सपत्नीक घर लौटने के लिए प्रस्तुत होता है परन्तु पुनः धोखा खाता है । विमातृज उसे छोड़ उसकी पत्नी को लेकर चल देता है । मणिभद्र यक्ष की सहायता से देवयान द्वारा वह समय पर घर पहुँच जाता है और अपनी पतिव्रता पत्नी को प्राप्त कर लेता है । काव्य के दूसरे भाग में रामायण और महाभारत के ढंग पर कुरुराज और तक्षशिला का युद्ध वर्णन है जिसमें भविसयत्त के पराक्रम से कुरुराज विजयी होता है तथा तीसरे भाग में प्रधान पात्रों के पूर्वजन्मों की कथाएँ वर्णित हैं । विमलबुद्धि नामक मुनि के उपदेशों से भविसयत्त वैरागी होते हैं तथा अन्त में तप साधना से निर्वाणपद प्राप्त करते हैं । श्रुतपंचमी के माहात्म्य स्मरण के साथ काव्य का समापन होता है ।
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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