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भविस को मुनिराज का उपदेश
(संसार की प्रसारता और नश्वरता)
पत्ता- संखिप्पइ पाउ दियहि दिहिं कुसरीर जहिं ।
सुट्ठ वि सुहिसंगि निव्वुइ किज्जइ काई तहिं ॥12॥ अहो नरिव संसारि प्रसारइ,
तक्सणि विट्ठपणटवियारइ। पाइवि मणुप्रजम्मु जणवल्लहु,
बहुभवकोटिसहासि दुल्लहु ॥ जो अणुबन्धु करइ रइलम्पटु, ।
तहो परलोए पुणुवि गउ संकडु ।। जइ वल्लहविनोउ नउ दोसइ,
जइ जोव्वणु जराए ण विरणासह ॥ जह ऊसरह कयावि न संपय,
पिम्मविलास होंति जइ सासय ॥ तो मिल्लिवि सुवन्नमणिरयणइं,
मुणिवर किं चरन्ति तवचरणइं॥ अर्थ-क्या निवृत्ति तब ग्रहण की जाती है जब दिन-दिन आयु क्षीण होती जाती है, अच्छा शरीर भी बिगड़ जाता है और मित्र भी साथ छोड़ देते हैं ।12।
हे नरेन्द्र ! यह संसार प्रसार है, तत्क्षण देखते-देखते विदीर्ण हो जाता है । हे जनवल्लभ ! हजारों कोटि भवों में भी जिस मनुष्य जन्म का पाना दुर्लभ है उसे पाकर भी जो विषय-लोलुपी उनमें फंसा रहता है तो उसका परलोक भी संकटपूर्ण हो जाता है । यदि वल्लभ का वियोग दिखाई न पड़ता, यदि यौवन व बुढ़ापे का नाश न होता, यदि सम्पत्ति कभी भी नष्ट नहीं होती और यदि प्रिय विलास शाश्वत होते तो क्या मुनिवर स्वर्ण एवं मणिरत्नों को पाकर भी तपश्चरण करते ?
भवि. 18.12.11-12.
18.13.1-7