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________________ 18 जनविद्या उत्तर-मैं मानता हूं कि भविष्यदत्तकथा का पूर्वभाग वहां समाप्त होता है जहां वह राजा से न्याय पाकर अपनी सम्पत्ति व स्त्री को पाने के साथ ही राजा का कृपापात्र होकर युवराज पद पाता है व राजकुमारी से विवाह करता है। __दूसरा भाग इसके बाद का है जहां कुरु-नरेश और तक्षिला नरेश में युद्ध होता है और भविष्यदत्त अपनी वीरता से युद्ध में विजयी होता है तथा अंत में वह साधु बनता है, उसके साथी भी धर्ममार्ग पर चलते हैं और कथानायक और उनके संयमी साथी अपवर्ग को प्राप्त होते हैं। हां ! कोई कोई दूसरे भाग के दो भाग करते हैं। एक युद्धभाग दूसरा धर्माचरणभाग । इस तरह कथानक के तीन भाग होते हैं। प्रश्न-विज्ञवर ! जानने का कौतूहल है कि यह भविष्यदत्तकथा प्रापकी स्वतंत्र-कृति है या आपने किसी का अनुसरण किया है ? प्रा उत्तर-मुझे स्वीकार करने में जरा भी संकोच नहीं है कि यह मेरी स्वतंत्र रचना नहीं है । यह कथानक पूर्व से ही लोकप्रिय था और मैंने इसकी पद्यरचना की। इसमें मां सरस्वती का ही प्रसाद है मेरा कुछ नहीं है । मेरी रचना की 14वीं संधि के 20वें कडवक की 17वीं पंक्ति पढ़िये उसमें है-पारंपरकव्वहं लहिवि भेउ मइ झरिवउ सरसइवसिण एउ परम्परा से पुरानी कविता प्राप्तकर सरस्वती मां की सहायता से मैंने यह रचना की। इससे यह स्पष्ट है कि मेरा काव्य कल्पित या स्वतंत्र रचित नहीं है । वैसे मैंने प्रारम्भ में भी लिखा है कि राजा श्रेणिक ने गणधर गौतम से श्रुतपंचमीकथा के सम्बन्ध में पूछा थापुच्छतहु सुयपंचमिविहाण तहिं पायउ एउ कहाणिहाण12 । मैं यह भी स्वीकार करता हूं कि मेरे पूर्व के कवि विबुध श्रीधर के 'भविष्यदत्तचरित्र' का अत्यन्त प्रभाव है और ऐसा कथानक बौद्ध-ग्रन्थों में भी मिलता है । इससे स्पष्ट है कि यह रचना मेरी स्वतन्त्र कृति नहीं हैं। प्रश्न-हे कविवर ! मुझे आपके धर्म व संप्रदाय के जानने की अभिलाषा है । कृपा कर स्पष्ट कीजिये। उत्तर-यह प्रश्न मेरे काव्य से नहीं मेरे स्वयं से सम्बन्धित है । मुझे स्पष्ट करने में गौरव है कि मैं दिगंबर संप्रदाय का अनुयायी हूं इसलिए अपनी मान्यता के अनुसार मैंने वर्णन किया। जैसे–मूलगुणों के वर्णन में मैंने मधु, मांस, मद्य और पांच उदम्बर का वर्णन किया है कि उन्हें कभी भी नहीं खाना चाहिये ।14 यह कथन भावसंग्रह के कर्ता दिगंबर-प्राचार्य देवसेन के अनुसार है । इसी प्रकार सोलह स्वों का वर्णन दिगंबर अम्नायानुकूल है (20.9.8)। साथ ही सल्लेखना का चतुर्थ शिक्षाव्रत के रूप में वर्णन करना दिगम्बराम्नाय का द्योतक है । इस तरह जहां आवश्यकता हुई मैंने दिगम्बर माम्नाय के अनुकूल लिखा है।
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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