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________________ जैन विद्या कथाकाव्य का अपभ्रंश के चरित-काव्यों में बहुत ऊँचा स्थान माना है । इस काव्य में कवि उदात्त प्रम वीररस के उदात्त चरितनायक और वात्सल्य रस का मार्मिक चित्रण किया है । श्रतः प्राचीन चरितकाव्य के रूप में यह कथाकाव्य अपना विशेष महत्त्व रखता है । 14 1. तिलकमंजरी में चित्रकला, प्रस्तरकला तथा अन्य कला-कौशलों का स्थल - स्थल पर विशद उल्लेख है 2. इनका समय 15वीं शती है । 3. राहुल द्वारा संकलित 'काव्यधारा' । 4. हिन्दी साहित्य, प्राचार्य डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी, 1953, पृष्ठ 21 । पुरुष का पुरुषत्व पुरिस पुरिसिव्वउ पालिव्वउ परधणु परकलत्तु गउ लिव्वउ । तं धणु जं श्रविरणासियधम्में rors yoवक्किय सुहकम्में ॥ अर्थ - पुरुष का पुरुषत्व इसी में है कि वह परधन और पर स्त्री की पालना करे, उन्हें ग्रहण न करे । धन वही है जो पूर्वकृत शुभकर्म एवं अविनाशी धर्म के द्वारा प्राप्त हो । भवि 3.19.1-2
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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