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________________ जैन विद्या 131 इसी को शिवसुख में मग्न होना मानना चाहिए, इसी को शिवमुख में मग्न होना मानना चाहिए ।।38॥ आत्मा यदि प्रात्मगुणों में लीन हो जाता है तो संसार के महान् दुःखों को भग्न कर देता है।।391 जो कर्म नहीं करता और यदि प्रात्मस्वरूप में जी लगाता है तो उसके (कर्म) सहज ही क्षीण हो जाते हैं ॥401 और शुद्ध स्फटिक की तरह एकल मात्मा दीप्त हो जाता है ऐसा सब परहन्त देवों ने कहा है ॥4॥ 'अष्टकर्मरहित जीव शिवपुर प्राप्त करता है' ऐसा कालुष्यरहित जिनेन्द्रदेवों ने कहा है।।421 जो जीव के देवत्त्व को जानता है वह प्रात्मतत्त्व को ही देव मानता है ॥430 यह जानकर जो जीव पहले जिन को भावपूर्वक भाता है वह शिवसुख पाता है ।।44।। इस प्रकार जो भावना भाता है वह दुःखों का क्षय और कर्मों का क्षय करता है ।।45।। हे जीव, प्रतिक्षण ‘णमो मरहंताणं' का ध्यान करो पौर शीघ्र ही निर्वाण प्राप्त करो ।।4611 चारित्रसेन मुनि कहते हैं कि हे भव्यजीवो ! समाधि का पाठ करो और कर्मकलंक का नाम करो।।471 हे मन ! समाधि का स्मरण करो जो विष को नाश करता है और जिससे परमशत्रु पाप प्रणष्ट होते हैं ।।48॥ बह दिन जिस दिन समाधिमरण होता है और जन्म-मरण को पानी दिया जाता है अर्थात् नष्ट किया जाता है, सुहावना होता है ।।49॥ इस प्रकार समाधि का जो प्रतिदिन ध्यान करता है वह अजर अमर शिवसुख को पाता है। जिनेन्द्र देवों द्वारा उपदिष्ट समाधि को जो करता है वही समदष्टि है 1500 ॥ इस प्रकार समाधि पूर्ण हुई ॥
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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