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________________ 129 जैन विद्या ऐसा जानकर जीव को निष्ठुर वचन नहीं बोलना चाहिए, ऐसे जीव द्वारा कोई भी दुःख या क्लेष नहीं सहा जाता ।।24।। अच्छी तरह समझ लो और सुनो-जीव मरेगा। प्रात्मा को निर्मल ज्ञानसरोवर में प्रविष्ट कर दो ॥25॥ मन, वचन और काय से जीवदया करनी चाहिए और दुःख तथा क्लेश को जलाञ्जलि देनी चाहिए ॥26॥ जो मीठा बोलता है और निष्ठुर वचन नहीं कहता उससे जीव के सुख-दुःख उत्पन्न नहीं होते ॥27॥ हृदय में ऐसा जानकर पर में रति नहीं करना चाहिए और जिनवररूपी राम को हृदय में धारण करना चाहिए ॥28॥ जब तक राग है तब तक ही जीव दुःखी है। राग छूटने पर वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥29॥ जिस प्रकार पानी से भरा हुआ तालाब प्रतिदिन छीजता है वैसे ही तेरी प्रायु भी छीजती है ।।30॥ एकेन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय तक के जीवों में जन्मप्राप्ति अपने पापही समझो ॥31॥ ऐसा समझ कर जो जीव प्रात्मा का ध्यान करते हैं वे शीघ्र ही अविचल शाश्वत सुख को पा लेते हैं ।।32॥ इस संसार में शाश्वत रत्नत्रय की जो भावना भाता है उसके पापमल क्षीण हो जाते हैं ॥33॥ जो दर्शन, ज्ञान और चारित्र को जानते हैं वे इन तीनों को ही आत्मा का रत्न मानते हैं ।।34।। जो प्रात्मा का सुनिर्मल श्रद्धान है, वही सम्यग्दर्शन है, तू प्रतिपल उसको भा ॥35॥ जो प्रात्मा को भलीप्रकार जान लेता है, वह जीव निश्चय ही प्रात्मज्ञान को पहचान लेता है ।।361 जो बार-बार मात्मा को स्थिर करता है वह मन से चारित्र की भावना करता है ॥37॥
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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