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________________ 100 जनविद्या है-सरसह-बहुलख-महावरेण परिणवरेण धरणपाले चिन्तियं (1.4.4, 5)-इस "दुसम" काल में मुझ जैसे कवि ने जिसे देवी सरस्वती से बहुत-से महान् वर प्राप्त हैं, "सुयपंचमी" नामक कथा का वर्णन करने की सोची है। कवि ने अपने सम्बन्ध में जो यह कथन किया है उसमें अहंकार की गन्ध नहीं है। बुध-जनों से विनम्रता-पूर्वक जो कवि अपने पापको “मन्द-बुद्धि णिग्गुणु णिरत्यु" ( 12.1) कहता है, वही यहां अपनी कवित्व शक्ति के विषय में इस उक्ति द्वारा आत्म-विश्वास अभिव्यक्त करता दिखाई दे रहा है । "भविसयत्तकहा" का नायक भविष्यदत्त पहले अपने जन्म-दाता धनपति द्वारा उपेक्षित था । वह अपनी साहसप्रियता तथा उच्चाकांक्षा से प्रेरित होकर स्वयं खतरा मोल लेते हुए अपने सापत्न बन्धु बन्धुदत्त के साथ धन-सम्पदा का उपार्जन करने के लिए चला गया। तब बन्धुदत्त ने उसे पारिवारिक विद्वेष से तिलक नामक द्वीप में एकाकी छोड़ दिया । फिर भी भविष्यदत्त ने धैर्य और हिम्मत से उस विपरीत परिस्थिति में धनसम्पदा पायी और उस निर्जन द्वीप की राजकन्या भविष्यानुरूपा का पाणिग्रहण किया। यह सब उसके पूर्वभव के कर्मों के फलस्वरूप हुआ। वह जब अपने देश लौटने का यत्न करने लगा तो संयोग से असफलता और हानि को प्राप्त बन्धुदत्त से उसकी भेंट हुई । फिर से बन्धुदत्त ने छल-कपट से भविष्यदत्त की सम्पत्ति तथा पत्नी भविष्यानुरूपा का अपहरण किया और वह अपने नगर गजपुर लौटा। इधर भविष्यदत्त को मणिभद्र यक्ष ने गजपुर पहुंचा दिया। उसके सद्भाव से उसकी सम्पदा और स्त्री की उसे पुनः प्राप्ति हुई और गजपुराधिप भूपाल ने अपराधियों को दण्डित करते हुए भविष्यदत्त को सम्मानित किया और अपनी पुत्री सुमित्रा का उससे यथासमय पाणिग्रहण करा दिया। भविष्यदत्त के जीवन की इन घटनामों से इस बात पर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है कि एक स्त्री किस प्रकार सापत्न्य भाव से अपने पुत्र को अपने सौतेले पुत्र का विनाश करने की प्रेरणा देती है, एक भाई अपने दूसरे भाई से किस प्रकार छल-कपट करता है, विश्वासघात करके कृतघ्नतापूर्वक उसका सब कुछ अपहरण करता है, किस प्रकार इन घटनाओं को देखनेवाले लोग डर और संकोच से चुप्पी साधे बैठते हैं और अन्त में दण्ड-भय से सत्य प्रकट करते हैं। इस समस्त प्रसद्व्यवहार का कारण है-मनुष्य की स्वार्थलोलुपता, धन और स्त्री सम्बन्धी प्रासक्ति । संसार का इतिहास इसका साक्षी है-छोटे बड़े राजकुलों में, सम्भ्रान्त परिवारों में आये दिन इससे मिलती-जुलती घटनाएं घटित होती रहती हैं। हां, संसार में अपने वैभव को पुनः प्राप्त करनेवाले भविष्यदत्त जैसे लोग बहुत कम होते हैं। कवि की दृष्टि से उसकी सफलता का रहस्य एक तो "कर्मवाद" में है पौर दूसरे उसने 'कवि-सत्य' (पोएटिक जस्टिस) का निर्वाह करना चाहा है जिसके अनुसार संसार में सज्जनता की विजय और दुर्जनता की हार होती है। कथा के इस मंश में "पौराणिक यथार्थवाद (माइथालॉजिकल रिअलिज्म)" पाया जाता है जैसे- तिलक द्वीप में घटित घटनाएं, यक्ष द्वारा भविष्यदत्त की सहायता करना, आदि। शेष घटनाएं भले ही घटित घटनाएं, फेक्टस् न हों, फिर भी उनमें सत्य का आभास है-यहां तक कि पाठकों को वे घटनाएं प्रांखों देखी सी जान पड़ती हैं, घटित घटनाओं का प्रतिबिम्ब सा
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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