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________________ 96 जनविद्या करता है किन्तु कमलश्री के अतिरिक्त किसी को भी उसके उस अमानवीय व्यवहार पर दुःख या क्षोभ नहीं जो उसने भविष्यदत्त के साथ किया है । इस प्रकार तत्कालीन समाज में दुराचारी के लिए न तो कोई सामाजिक दण्ड-व्यवस्था है और न ही कोई राजकीय दण्डव्यवस्था । कवि उससे मुक्ति के लिए केवल काल्पनिक आधार पर धार्मिक समाधान प्रस्तुत करता है। धनपाल के युग का समाज ऐसे मनुष्यों का समाज बन चुका है जिसमें राजा पोर सेठ ही निर्मम नहीं, अन्य पुरजन-परिजन भी निर्दय हो चुके हैं । उस युग में अगर सद्गुणों की सुरक्षा की रीढ़ कहीं दिखाई देती है तो वह कमलश्री के रूप में प्रस्तुत की गई माता में । सरूपा भी माता है, परन्तु उसमें वह मानवीय ममता नहीं । स्पष्ट है कि कवि कमलश्री के रूप में ममतामयी नारी की प्रास्था धार्मिक भावना के माध्यम से जीवित रखना चाह रहा है । वह उसमें एक परम्परागत करुणामयी माता का स्वरूप देखता है । कमलश्री भविष्यदत्त के वापिस न माने पर प्रत्यधिक दुःखी हो उठती है, उसका विलाप पत्थरों को भी द्रवित कर देनेवाला है । धनपाल ने लिखा है हा पुत्त पुत्त उक्कंठियहि, घोरंतरि कालि परिट्ठियहि । को पिक्सिवि मणु अग्भुखरमि, महि विवरु देहि जि पइसरमि। हा-पुब्वजम्मि किउ काई मई, निहिदंसरिण जं नयणइं हयई। 8. 12. 13 मानवीय संवेदना से शून्य हो चुके युग में मां की ममता ही समाज को जीवित रखती है । धनपाल इस दृष्टि को "भविसयत्तकहा" में पर्याप्त गंभीरता से स्वीकारता है। पुत्र के लौटने पर उसी मां की प्रानन्ददशा का चित्रण इन शब्दों में करके कवि संवेदना के मानवीय फलक को शाश्वत बनाता है घरपंगणि पंकयसिरि पावर, मज्जिय जिणवयरणइं परिभावइ । सुन्वय विहिमि जाम नवकारिय, तो सविलक्सई सन्न समारिय । हलि हलि कमलि किं घावहि, पुतहो वयण काई व विहावहि । सरहसु विन्नु सहालिंगण, निवडिवि कम कमलहि थिउ नंवण । मुहबंसण मलहंतई नयणई, अंसु मुमाइयाई जिह रयणइं ।
SR No.524754
Book TitleJain Vidya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1986
Total Pages150
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size13 MB
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