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________________ जनविद्या सुख-सौभाग्य से भर गया । कोयलों का कल-कल रव सब ओर ध्वनित होने लगा। विरहीजन विरह की ज्वाला से जल उठे। भौंरों की पंक्ति ऐसी मधुर रुनझुन ध्वनि करने लगी मानो कामदेव के धनुष की प्रत्यंचा झनझना रही हो। मंगलमय धवल वस्त्रों से सुसज्जित विलासिनी स्त्रियों ने सामूहिक रूप से विलासमय नृत्य किया। दीनजन दान से आनन्दित किये गये । बन्दीजन बन्दीगृह से मुक्त कर दिये गये ।13 सांसारिक दृष्टि से भगवान् वही है, जो शक्तिसम्पन्न हो - अलौकिक शक्ति का धनी हो, जो जनसाधारण को काल के क्रूर थपेड़ों से बचा सके, जो दुष्ट पुरुषों और भयंकर दरिन्दों से रक्षा कर सके, जो सर्व शक्तिवान् हो । संसार शक्ति-पूजक है और वह भगवान् उसी को मानता है, जो आश्चर्यकारी शक्तियों का पुंज हो । भगवान् के सम्बन्ध में यह मान्यता सार्वभौम है । सूरदास के ग्वाल-बाल कृष्ण को तभी भगवान् मान सके, जब उन्होंने दुर्दान्त कालिय नाग को नाथ लिया। उस समय वे बालक मात्र थे, पुरुष नहीं । तभी उन्होंने यह असम्भव-सा लगनेवाला कार्य कर दिखाया था। "णायकुमारचरिउ" में नागकुमार का चरित्र भी इसी प्रकार का है। यहाँ खेलता हुआ बालक, अकस्मात् वापी (बावड़ी) में जा गिरा, डरा नहीं, रोया नहीं, चीखा-चिल्लाया नहीं, अपितु वहाँ मौजूद एक मणिधारी सर्प के फरण पर जा बैठा। उसने विषधर की मणि में अपना प्रतिबिम्ब देखा, तो समझा कि कोई दूसरा शिशु है, अतः उससे खेलने लगा। वह अपने करतल से नाग के मुख और दाढ़ों को छूता रहा, हंसता रहा – निर्भीक और निडर । पुष्पदंत सूरदास के पूर्ववर्ती थे । कम-से-कम पांच सौ वर्ष का अन्तराल तो था ही। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि सूरदास के कालिय नाग की कथा पुष्पदंत से प्रभावित थी। मेरी दृष्टि में प्राचीन और मध्यकालीन काव्यों में नाग को नाथने की कथा एक कथारूढ़ि सी हो गई थी। कोई किसी से प्रभावित नहीं था। पुष्पदंत और सूरदास के बाल-वर्णन में वही अन्तर है, जो अन्य जैन कवियों और सूर-परम्परा के कवियों में है। जैन काव्यों में गर्भ और जन्म का जैसा मनोहारी वर्णन है, वह पालंकारिक होते हुए भी सरस है। नेत्रहीन होते हुए भी सूरदास ने कृष्ण की बाल और कैशोर लीलाओं का जैसा चित्रांकन किया, जैन कवियों में कहीं उपलब्ध नहीं होता। इसके अतिरिक्त सूरदास के बाल-वर्णन में जो भाव-विभोरता है, वह जैन काव्यों में नहीं। दोनों के भक्ति-दर्शन में भिन्नता थी। जैन कवि अध्यात्म-मूला भक्ति को लेकर चले, जबकि सूर कोरे भक्ति-भाव के उपासक थे । अध्यात्म-मूला भक्ति में जहाँ विवेक बरकरार रहता है वहाँ कोरी भक्ति में भाव अन्धड़ की तरह बहता है, साथ ही पाठक बह जाता है और फिर रीजनिंग/तर्क-संगतता भी बह जाती है। जैन कवियों में भी भक्ति थी, भावोन्मेष था, किन्तु उसे उन्होंने नशा कभी नहीं बनाया। 1. रायचन्द, सीता चरित, जैन सिद्धांत भवन, पारा की हस्तलिखित प्रति, 1.126. - पृष्ठ 11 2. अंजना सुन्दरी रास, जैन सिद्धान्त भवन, पारा की हस्तलिखित प्रति, 2.35 पृष्ठ 43
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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