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________________ महापुराणु के रामायण खण्ड की बिम्ब-योजना - - डॉ० छोटेलाल शर्मा 75 fe वस्तु, घटना आदि के रूप, रंग, ध्वनि, गति प्रभृति के प्रभावशाली अलंकृत ' एवं ऐन्द्रिय चित्र को कहते हैं । ये स्वतः संभवी भी होते हैं और कविप्रौढोक्ति सिद्ध भी । स्वतः-संभवी बिंबों का निकटतम संबंध देश की समादृति से होता है और कविप्रौढोक्ति सिद्ध बिंबों का देश और काल की समादृति से । ये कल्पनाप्रसूत होते हैं । कल्पना " कवित्व बीज की संस्कार विशेष", 3 " अपूर्व वस्तु के निर्माण में समर्थ प्रज्ञा " ( प्रतिभा ) 1 तथा "काव्य घटना के अनुकूल शब्द और अर्थ की उपस्थिति का नाम है । इस प्रकार समग्र कवि-कर्म बिंब-विधान के अन्तर्गत सिमट जाता है ।" "अपूर्वता”, “वक्रोक्ति”, “अतिशयोक्ति”, “श्लेष”, “औपम्य” आदि वाक्य वक्रता अर्थात् अलंकार जीवातु का पर्याय है - अलंकार भी रस और ध्वनि के सहज और अविभाज्य अंग हैं । प्रतिभावान् कवि जब " समाहितचेतसः " होकर काव्य- निर्माण में लीन होता है, तब " रसाक्षिप्त" और "पृथग्यत्न निर्वर्त्य", दुःसाध्य अलंकार अहमहमिका-पूर्वक स्वयं दौड़ आते हैं ।" कुंतक ने अलंकारों को रचना का सहज अंग स्वीकार किया है और इनका सम्बन्ध कवि की विदग्धता अथवा व्युत्पत्ति से जोड़ा है । इस प्रकार प्रतिभा और व्युत्पत्ति से संभूत अलंकार और बिंब पर्याय ठहरते हैं और इनके श्रन्तर्गत उच्च और उदात्त कल्पना, उक्ति-वैचित्र्य, वस्तु, गुण, स्वभाव, कार्य-व्यापार, तथा भाव - मनोविकार के अलंकृत, प्रेषणीय और प्रभविष्णु रूप समाहृत रहते हैं । काव्य में इनसे विभावादि साधारणीकृत होते हैं और भाव देश और काल के संसर्ग से मुक्त | घटना
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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