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जैनविद्या
शब्द प्रणाम*
सारस्वत गगनाञ्चल के तुम दिव्य दिवाकर कान्त । काश्यपगोत्र पवित्र देह, मन लीन जैन सिद्धान्त ॥ मुग्धादेवी को ममता से लालित तुम कवि मेरु । केशव भट्टात्मज, कवि, पण्डित, तुम अभिमान सुमेरु । सरस काव्य रत्नाकर, कवि कुल तिलक, कृष्ण कृश गात्र । उग्र प्रकृति, संस्कृत-प्राकृत काव्यामृत के तुम पात्र ॥ प्रतिभा है सहचरी, काव्य जिन चरणापित चन्दन । अगणित काव्य-पारिजातों के तुम सुरभित नन्दन ॥ महामात्य भरतादृत दैहिक भोग विमुख, निःसङ्ग। मान्यखेटवासी, पौराणिक, धूल धूसरित अङ्ग ॥ शब्द-ब्रह्म आराधक ! शब्दशक्ति युत हे रससिद्ध! नाग-यशोधर चरित काव्य मय ! महापुराण समृद्ध ॥ . भूशायी, वल्कलप्रिय, जीवों के निष्कारण मित्र। जैन-ब्रह्म सिद्धान्त शिरोमणि ! सम्यग्दृष्टि पवित्र ॥ . कविपिशाच ! अभिमान चिह्न ! अभिमान मेरु ! कवि प्राप्त । महापुराण सदृश जीवन में रसधारा है व्याप्त ॥ बाधारहित धर्ममय जीवन, धन्य तुम्हारा नाम । पुष्पदन्त कविवर ! स्वीकारो हार्दिक शब्द प्रणाम ॥
- - पण्डित विष्णुकान्त शुक्ल
* महाकवि पुष्पदन्त द्वारा उत्तरपुराण में दिये गये स्वकीय जीवन परिचय के आधार पर।