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________________ जैनविद्या जहिं कोइलु हिंडइ कसपिंडु, वणलच्छिहे गं कज्जलकरंडु। जहि सलिलई माश्यपेल्लियाई, रविसोसभएण व हल्लियाइं ॥ (1.12) इस अवतरण में "हिंडइ" (हिंडना-विचरण करना), पेल्लियाई (पेलना= आन्दोलित करना) और हल्लियाई (हलहलाना हीलना, चंचल होना) शब्द लोकभाषामूलक हैं, जिनसे उत्पन्न अभीप्सित अर्थ की अभिव्यंजना अधिकाधिक जनसम्प्रेषणीय बन गई है । इसी क्रम में कवि प्रयुक्त “गिल्ल" (गीला : 29.5) "चक्खइ" (चखता है : 2.19) "जेवंइ" (खाता है : 18.7) "डोल्लइ" (डोलता है : 4.18) "रहट्ट" (रहट : 27.1) "ढिल्लीहूय" ( ढीला होकर : 32.3 ) "तोंद" (पेट : 20.23) "बुड्डइ" (बूड़ता= . डूबता है : 23.11) आदि लौकिक प्रयोग ध्यातव्य हैं । काव्यभाषा से छन्द का भी घनिष्ठ सम्बन्ध है क्योंकि छन्द के सभी लक्षण भाषामूलक हैं। वस्तुतः छन्द किसी काव्यरचना के शब्दों और अक्षरों की एक ऐसी समान मात्रिक व्यवस्था है जिसकी नियमित एवं निर्धारित आवृत्ति से काव्यपाठ में विलक्षण आनन्द मिलता है। भारतीय काव्य छन्द की महिमा से आपूरित है। छन्दःशास्त्र, काव्यशास्त्र का अंग होते हुए भी एक स्वतन्त्र शास्त्र बन गया है । छन्द मूलतः श्रौत शब्दविधान है । यह एक ऐसा भाषिक प्रायोजन है जिससे शब्दों में गति और भाषा में प्रवाह का संचार होता है। गतिशील लयविशेष की सुचिन्तित योजना से ही छन्द की उत्पत्ति होती है । काव्य में कल्पना और समूर्तन के साथ ही आवेग के कम्पन के लिए छन्द अनिवार्य है । भाषा में प्रस्पन्दन के अतिरिक्त अत्यन्त लीनता के साथ भोगी गई अनुभूति की अभिव्यक्ति छन्द के नियंत्रण से ही संभव है । छन्द ही कविता को सांगीतिकता प्रदान करता है, और फिर व्यापक जनप्रेषणीयता के लिए भी छन्द एक अनिवार्य उपादान है । कवि के भावाभिभूत एवं आवेग कम्पित हृदय से छन्द स्वतः फूट उठता है। वाल्मीकि के क्रौंचवधजन्य करुणा से उन्मथित एवं हृदय में संचित शोक श्लोक बनकर प्रवाहित हो उठा था : "श्लोकत्वमापयत यस्य शोकः ।" महाकवि पुष्पदंत छन्द की अपार महिमा के मर्मज्ञ थे इसलिए उन्होंने “महापुराण" की प्रत्येक संधि में महाकाव्यानुकूल विभिन्न छन्दों का प्रयोग किया है । यद्यपि प्रत्येक सन्धि के प्रत्येक कडवक की छन्दोयोजना परिवर्तित नहीं, तथापि कडवक के आदि का छन्द प्रायः प्रत्येक सन्धि में भिन्न है । कहीं-कहीं कडवक में दुवई युग्मक का भी प्रयोग हुआ है । घत्ता के बाद कडवक की व्यवस्था तो अपभ्रंश-काव्य की निजता है जो बाद में हिन्दी के मानसकाव्य में दोहा, चौपाई के रूप में पुनराख्यायित हुआ। महाकवि पुष्पदंत ने मात्रिका छन्दों का अधिक प्रयोग किया है और तुक के निर्वाह का प्रयास भी। महाकवि की इस छन्दोयोजना से उनके महाकाव्य की तीव्र अनुभूत्यात्मक वाणी में लयात्मक स्पन्दन का मोहक विनियोग हुआ है। "महापुराण" में चूंकि भावनाओं और आवेगों की हलचल अधिक है, इसलिए यथाप्रयुक्त छन्दों में मृदु-मंजुल लयात्मकता और प्रस्पन्दन का समावेश
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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