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________________ 44 जैनविद्या "त्रिषष्टि लक्षण आदिपुराण" और परवर्ती हेमचन्द्र (12वीं शती) ने भी "त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित" में संस्कृत-भाषा में तिरसठ शलाकापुरुषों का चरित्र-चित्रण उपन्यस्त किया है। महाकवि पुष्पदंत के कुल एक सौ दो सन्धियों से समन्वित इस महापुराण में तिरसठ महापुरुषों के वर्णन-क्रम में, जैनाम्नायकी दृष्टि से "रामायण" और "महाभारत" की कथाओं को भी अन्तर्भूत किया गया है। जैसा कहा गया, महाकवि पुष्पदंत का “महापुराण" तिरसठशलाकापुरुषों या महापुरुषों की महती कथा है, जो महाकवि गुणाढ्य की पैशाची-प्राकृत में लिखी गई "वृहत्कथा" के परवर्ती विकास की परम्परा का जैन नव्योद्भावन है । यह “महापुराण" इतिहास, कल्पना, मिथकीय चेतना एवं कथारूढ़ि से मिश्रित कथानक की व्यापकता और विशालता साथ ही भावसघन एवं रसपेशल भाषिक वक्रता, चमत्कारपूर्ण घटनाओं की अलौकिकता, व्यंजनागर्भ काव्यमय सरस सुन्दर वर्णन-शैली आदि की दृष्टि से काव्यभाषा के मनोरम शिल्प से सज्जित महाकाव्य का असाधारण प्रतिमान बन गया है । ... सामान्य भाषा ही जब विशेषोक्तिमूलक होती है, तब काव्यभाषा बन जाती है । इसलिए सामान्य भाषा यदि जल के समान है, तो काव्यभाषा उस जल से उत्पन्न लहर के समान । काव्यभाषा में कविता की प्राकृतिक शक्ति अन्तनिहित रहती है, इसलिए वह सामान्य भाषा से अधिक प्रभावक होती है। काव्यभाषा की यह प्रभावना ही है कि काव्य गुणों से अनभिज्ञ श्रोता भी काव्यपाठ सुनकर आनन्दविमुग्ध हो उठता है। इसलिए, कवि सुबन्धु ने अपने प्रसिद्ध कथाग्रन्थ "वासवदत्ता" में कहा है - अविदितगुणापि सत्कविभरिणतिः कर्णेषु वमति मधुषाराम् । अनधिगतपरिमलापि हि हरति दृशं मालतीमाला ॥ अर्थात् “सत्कवि की कविता, उसके गुणों को जाने बिना भी, श्रवणमात्र से ही कानों में मधुधारा की वर्षा करती है, जैसे मालती पुष्पों की माला, उसके सौरभ को ग्रहण किये बिना भी दृष्टि को लुभा देती है ।" कहना न होगा कि महाकवि पुष्पदंत के महापुराण की काव्यभाषा में श्रवणमात्र से ही हृदय को आकृष्ट कर लेने की प्रचुर शक्ति विद्यमान है। इस सन्दर्भ में एक दूसरे की ओर बढ़ती हुई दो सेनाओं का एक वर्णन द्रष्टव्य है - चलचरणचारचालियधराई, डोल्लावियगिरिविवरंतराई। ढलहलियघुलियवरविसहराई, भयतसिररसियधरणवरणयराई। झलझलियवलियसायरजलाई, जलजलियकालकोवाणलाइं ॥ आदि० (52.14) युद्धविषयक कठोर बिम्बमूलक इस अवतरण में काव्यगत ऐसी भाषिक शक्ति निहित है कि वह श्रोताओं को अर्थ जाने बिना भी श्रवणमात्र से ही सहसा आवजित कर लेने की क्षमता रखता है।
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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