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________________ जनविद्या 2.6 चित्रोपमता ध्वन्यात्मक शब्दावली से अथवा पद-योजना से कवि कुछ ऐसे वर्णन प्रस्तुत करता है कि एक चित्र खिंच जाता है - जलरिणहिव झलझलइ । . विसहरुवि चलचलइ ॥ एक और चित्र देखिए - घोट्टइ खीरं, लोट्टई पोरं । भंजइ कुंभ, मेल्लइ डिभं । छंडइ महियं, चक्खइ बहियं, कढइ चिच्चि, घरइ चलच्चि ॥ क्रिया व्यापारों की भीड़-भाड़ से - लुंचरणई, खेचणइं, कुंचणइं, लुट्टणई। कुट्ठणइं थट्टणई वट्टणई। पउलणइं पीलणइं हूलणइं चालणइं। चलणाई ढलणाई मलगाइं गिलगाई। कहीं कोमलकान्त पदावली की संयोजना से - पर पय-रय-धूसर किंकर सरि। जसहरचरिउ की भाषा पर विचार-विमर्श करते हुए डॉ० कोछड़ लिखते हैं - "भावोद्रक की दृष्टि से भावतीव्रता ग्रंथ में मन्द है किन्तु भाषा वेगवती है । कवि जो कुछ कहना चाहता है तदनुकूल शब्द योजना कर सका है" - तोडइ तडति तण वंधरणइ । भोडइ कडति हड्डुई धरणइं। फाउइ चडत्ति चम्पई चलई । घुट्टइ धडति सारिणय बलई ॥..... . इसमें देखिये भिन्न-भिन्न शब्द-योजना द्वारा शरीर की ग्रंथियों का तड़ से टूटना, हड्डियों का कड़-कड़ कर मुड़ना, चमड़े का चर्र से अलग हो जाना, खून का घट-घट पीजाना आदि के लिए कितने उपयुक्त शब्द हैं। इस प्रकार अनुरणनात्मक शब्दों की योजना में पुष्पदंत जैसा सिद्धहस्त कवि हमको समस्त हिन्दी साहित्य में कोई दूसरा नहीं दृष्टिगत होता है, यह प्रवृत्ति भाषा को प्राणवान् बनाती है, आधुनिक काल में छायावाद में आकर पुनः इस ओर कवियों ने ध्यान दिया। पुनरुक्ति द्वारा भी कवि ने चित्र उपस्थित करने की चेष्टा की है। इस विधि से जहाँ एक ओर भाषा में वेग पाया है वहाँ दूसरी ओर बल प्रयुक्त हुआ है। . माणुस-सरीर बुह-घोट्टलउ। घायेउ घायेउ अइ-विट्टलउ । वासिउ वासिउ एउं सुरहि फलुं । पोसिउ पोसिउ गाउ घरह बलु ॥ तोसिउ तोसिउ एउ अप्पणउ । मोसिउ मोसिउ धरमायणउ । भूसिउ भूसिउ ए सुहावरणउ । मंडिउ मंडिउ मीसावरणउ ॥
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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