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________________ जैनविद्या (हाथी) । इसके अतिरिक्त घर, भंझा, पहर, खीर, गाम, दही, आदि शब्द तो उस काल में पूर्णतया स्थिर हो गये । आज पुनः घर को "गृह" के रूप में लिखने की चेष्टा की जा रही है, जिन रूपों को लोक में प्रचलित होने में 2000 वर्ष लगे क्या उन शब्दों को इन प्रयासों से बदला या हटाया जा सकता है ? 40 2. 3 कुछ शब्द लोक - भाषाओं में पर्याप्त आवृत्ति के साथ चल रहे हैं यद्यपि परिनिष्ठित हिन्दी में उनके तत्सम रूप को ही व्यवहृत किया जा रहा है. दालिद्ध (र) ( दारिद्रय), सामल ( श्यामल), उच्छव ( उत्सव ), पौत्थ- पौथी (पुस्तक), थरण (स्तन), हेट्ठ ( हेठा) । इसके अतिरिक्त घल्लइ, चक्खइ, चड्डू, चडाविइ, भुलइ, छज्जइ, छंडइ, छिवह, जैकइ, वोक्खइ, झडप्पइ, झपइ, भुल्लर, ढलइ, ढंकइ, बुड्डइ, मुक्कइ, संगइ, छल्लई, आदि सहस्रों क्रियाएं तथा कसेरू, कुंड, सुरप्य, सील्ल, घियपूर, चीज्ज, छिक्र, टोप्पी, पेल्लिय, पोट्टल, बोहित्थ, मेल, रंडी, लुक्क, आदि सहस्रों अन्य प्रकार के शब्द भी पुष्पदंत के काव्य में मिलते हैं जिनसे मिलते-जुलते शब्दों का श्राज हम प्रयोग करते हैं । - 2.4 कुछ विशिष्ट शब्द भी मिलते हैं जिनका प्रयोग आज हिन्दी में प्रचलित नहीं है रिछोली (पंक्ति), गोदलिय ( चर्बिता ), धम्मेल्ल ( जूड़ा), विट्ठलउ ( मलिन), संढे (नपुंसक), चंगा (अच्छा ), ढुक्कु, (प्रविष्ट हुआ), सुट्ठ (अच्छा ), श्रवभंगिय ( मालिश ), विठ्ठल ( अस्त-व्यस्त ), विभिउ ( विस्मय) आदि । पर इन शब्दों में कुछ शब्द जैसे चंगा, सुट्ठा आदि श्राज भी अन्य आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं - पंजाबी, सिंधी आदि में प्रचलित हैं । " धम्मिल" आदि शब्द का प्रयोग तो जायसी में भी मिलता है । 2.5 अपभ्रंश की एक सबसे प्रमुख प्रवृत्ति है ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग । भावानुकूल शब्द - योजना के लिए इससे अच्छा और कोई अन्य साधन नहीं मिल सकता । कुक्करंति, गुमगुमति, पुरूहरंत, भरभरियई, रणरणिउं, चुमचुमंति, रुरणरुणिउं, धगधगधगंति, घरण पुफ्फुवंत, कढकढंतु आदि सहस्रों शब्द भरे पड़े हैं । गोवर्द्धन-धारण का एक चित्र देखिए - जलु गलइ, झलझलइ, दरि भरइ, सरि सरइ । asuss, afs uss | गिरि पुडइ, सिहि गडइ ॥ मरु चलइ, तरु घुलइ । जलु थलु वि, गोउहु वि । रिगरु र सिउ, मय तसिउ थरहरs, किरमरइ ॥ एक और चित्र देखिए - पडु तडि वरण पडिय वियडायल हंजिय सीह दारुणो । गिरि सरि दरि संरत सरसर भय वारणरमुक्करणी सरणो ॥ शब्द-योजना से एक प्रकार की ऐसी ध्वनि निकलती-सी प्रतीत होती है जैसे बादलों के अनवरत शब्द से समस्त आकाश भरा हुआ है। कहीं-कहीं तो इस प्रकार के शब्दों की झड़ी-सी लग जाती है - तड-तड-तड-तड- तडतडय सिंगु ।
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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