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________________ . अपभ्रंश के संवेदनशील महाकवि पुष्पदंत - डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री मानवीय संवेदनाओं के कुशल चित्रकार, बिम्ब-विधान में अनुपम, प्रतीक-संयोजना में सफल, प्रकृति की पृष्ठभूमि में मानवीय चेतना का सजीव वर्णन करने में रससिद्ध कवि तथा प्रकृति की सूक्ष्म संवेदनाओं को मानवीय धरातल पर अंकित करनेवाले विविध रंगों की चित्रशाला में सौंदर्य का सफल अंकन पृष्ठभूमि में विभिन्न चित्रों के अभिव्यंजित करनेवाले महाकवि पुष्पदंत उत्तर तथा दक्षिण भारत के मध्य देशी भाषा का सेतु निर्माण कर शास्त्रीय परम्परा को बहु प्रआयामी रूप प्रदान करनेवाले यथार्थ में सशक्त कलाकार हुए। अपभ्रंश साहित्य की परम्परा-प्रसिद्ध परम्परा में महाकवि पुष्पदंत का नाम मुख्यरूप से सदा उल्लेखनीय है। इसका कारण स्पष्ट है कि कवि की रागात्मक चेतना में जिन भावानुभूतियों की अभिव्यंजना हुई है वे मानवीय संवेदनाओं से सराबोर हैं। संवेदनशीलता के दर्पण में आलोकित कवि की प्रकृति जड़ नहीं, किन्तु सजीव मानवीय व्यापारों में अन्वित निर्भर रस-स्रोत की भाँति प्रस्रवणशील लक्षित होती है । महाकाव्य के प्रारम्भ में ही यह स्पष्ट किया गया है कि जहाँ गुणवत्ता नहीं है, वहाँ जड़ता है। जड़ता से प्रकृति, वन भले हैं, शरण लेने योग्य हैं। कहा है – “जो चामरों की पवन से गुणों को उड़ा देती है, अभिषेक के जल से सज्जनता को धो देती है, जो अविवेकशील है, दर्प से उद्धत है, मोह से अन्धी और अन्य का हनन करनेवाली हैं, जो सप्तांग राज्य के भार से भारी है तथा पुत्र और पिता के साथ रमणरूपी रस में समान रूप से प्रासक्त है, जिसका जन्म कालकूट विष के साथ हुआ है, जो जड़ों में अनुरक्त है और विद्वानों से विरक्त है, ऐसी लक्ष्मी के
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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