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________________ 128 जैनविद्या (ख) पढइ पाढावइ अणचरइ, सो णरु सिवपुरि जाई ।। कम्महण भव णिदण्णि, भवियण हियइ समाइ ॥38॥ 170. (क) सुणतहं आनंदु उल्हसइ, मस्तिक न्यानतिलाकु । मुकटुमरिण सिर सोहइ, साहु गोपालहं जोगु ॥ (ख) सुणतहं आणंद उल्लसई, मस्तकि णाणतिलकु। . मुकटुमणि सिर सोहवई, साहु गुपाला हु जोगु ॥39॥ 171. (क) प्रति में यह छंद 30 के पश्चात् है । 172. (ख) सोई 173. (ख) परहणई 174. (ख) करई 175. (ख) होई 176. (क) सुनतह हियै करमर, मस्तिक उपज सूरु। . अणखु बढे वहु हियर, मिथ्यादिष्टि जोगु । (ख) सुणतह हियडइ कलमलई, मस्तकि उपज्जइ सूल । अणखु बढावइ बहु हियइ, मिछादिठ्ठी जोंगु ॥41।। 177. (क) हिंडोला छंदु गाइए, अनंदातिलुकु जु नाऊ । महानंदि देउ यौ भणे, इबि हौ स्यौपुरि जाइ । (ख) हिंदोला छंदि गाइयई, प्राणंदितिलकु जि पाउ । महाणंदि दक्खा लियउ, अव हउ सिवपुरि जाई ॥42॥ 178. (क) वलि किजो गुरु आपण फेले मनसंदेहु । विन तेलहि विनु वातियहि, जिन दरिसो ये भेऊ ॥ वलि काजउ गुरु आपणइ, फेडी मनह भरांति । विणु तेलहिं विणु वाटियहि, जिण दरिसावउ भेउ ।।43॥ 179. (क) सदगुरुवाणी जाउ छौ, भणे महानदि देउ । स्यौपुरि जाण्य जाणिए, करइ चिदानंदि सेव ।। (ख) प्रति में केवल इतना ही छन्द है ___सदगुरु चारणि जउ हउ, भणइ महा पाणंदि । 180. (क) इति अनंदातिलकु समाप्तं ॥छ।। नोट :- 'क' और 'ख' प्रतियों में 'पाणंदा रे' अथवा 'अणंदारे' ये शब्द तीसरे तथा चौथे पद के मध्य हैं और केवल चार ही पद हैं। उनमें चौथे पद की 'पाणंदा रे' यह लिखकर पुनरावृत्ति नहीं की गई है।
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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