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________________ 116 बंध विहरणउ देउ सिउ, कमलदिल जब जिम, विहीणु । गिम्मलु मलहं गवि तसु पावु र पुष्णु 7 6 ॥ श्राणंदा रे ! गवि तसु पावु रंग पुष्णु ॥17॥ हरि-हर-बंभु बि सिव कही, मन-बुधि लखो न जाइ । मज्झ सरीरहं सो वसई, लीजह गुरुहं पसाई 7 7 ॥ प्रागंदा रे ! लीजह गुरुहं पसाइ ॥ 18 ॥ 79 फरस 78. 8 - गंध-रस - बाहिरउ, जीव सरीरहं भिन्नु 2 करि, सदगुरु जारगइ सोइ 89 एकुछ समउ भाणे रहाह, रूव विहरणउ 0 सोइ 8 1 । ॥ 8 84 देउ सचेणु झाइयइ, " तं जिय 86 परु 7 विवहारु 8 । 88 श्राणंदा रे ! सदगुरु जारंगइ सोइ ॥19॥ 1, 90 धग धगं कम्मु-पयालु 1 ॥ श्राणंदा रे ! धगधग कम्मु-पयालु ||20|| 111 अप्पा 110 संजम सीलु-1 व 114, त-संजमु 115 - देउ-गुरु, जैनविद्या 3 3 95 जापु जपइ बहु तव तवइ, 92 तो वि३ ग कम्म 94 हर' 1 एकु सम अप्पा 7 मुराई, ,98 चउगइ 99 पारिग रग देइ 100 ॥ आणंदा रे ! चउगइ पारि र देह ॥21॥ 109 - सारु ॥ सी अप्पा 101 मुरिण 102 जीव तुहुं, 103 अहंकारि 104 परिहारु 105 1 सहज समाधि 100 जाणियंइ, ' 107. जे 108 जिरणसासरण ' श्रागंदा रे ! जे जिसासर साह || 22 गुणु, 118 116 प्पा दंसर-गा 118 1 श्रप्पा पहु व्विाणु ' ॥ श्रागंदा रे ! अप्पा पहु रिव्वाणु 117 11231 112 परमप्पउ... भाययइ, जो सो साचड 119 विवहारु । समकित बोधह 120 बाहिरउ, कणु 1-2 [1-21 विणु गes परारु 122 11 आणंदा रे ! कणु विणु गहइ परारु ॥24॥ माय- बप्प कुलु 1 28 जाति विणु, सम्मकदिट्ठिहि जारियs, । गउ तसु रोसु ण राउ 124 सदगुरु ( करइ सुभाउ 125 आणंदा रे ! सदगुरु करइ सुभाउ ॥25॥ U
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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