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________________ महाकवि पुष्पदंत के आदिपुराण की एक सचित्र पाण्डुलिपि - डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल अपभ्रंश भाषा देश की एक सम्पन्न भाषा है जिसका विशाल साहित्य उपलब्ध होता है.। जैनाचार्यों, भट्टारकों, सन्तों एवं कवियों ने इस भाषा को सबसे अधिक प्रश्रय दिया और 8वीं शताब्दी से लेकर 16वीं शताब्दी तक इसमें सैंकड़ों कृतियाँ लिखी गईं । इस भाषा के माध्यम से दक्षिण एवं उत्तर भारत के विद्वानों में सौहार्द बढ़ा और वे एक दूसरे के विचारों से अवगत होते रहे । अपभ्रंश के प्रमुख कवियों में स्वयंभू, पुष्पदंत, वीर, नयनन्दि, धवल, धनपाल एवं रइधू के नाम विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं जिन्होंने इस भाषा में उच्चकोटि की रचनाएं निबद्ध करके भारतीय साहित्य को समृद्ध बनाया। अधिकांश अपभ्रंश साहित्य पुराण, काव्य, चरित एवं कथा-प्रधान होने से अपने युग में बहुत ही लोकप्रिय रहा और उसकी कृतियाँ बड़े ही चाव एवं रुचि से पढ़ी जाती रहीं। सैंकड़ों वर्षों तक अपभ्रंश की रचनाओं को प्राकृत की रचनाएं ही समझा जाता रहा । अपभ्रंश भाषा से अनभिज्ञ होने के कारण जैन शास्त्र भण्डारों के सभी सूचीपत्रों में अपभ्रंश ग्रंथों की भाषा को प्राकृत भाषा ही लिखा जाता रहा। यह भ्रम अब दूर हो गया है और यह स्वीकार किया जाता है कि अपभ्रंश एक स्वतन्त्र भाषा के रूप में विद्यमान रही है।
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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