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________________ प्रस्तुत ग्रंथ के प्रथम अध्ययन में उस युग के सुप्रसिद्ध सत्रह प्रकार के आभूषणों का वर्णन है। वे इस प्रकार हैं- 1. हार, 2. अर्द्धहार, 3. एकावली, 4. मुक्तावली, 5. कनकावली, 6. रत्नावली, 7. कण्ठा, 8. पैरों तक लटकता हुआ कण्ठा, 9. कड़े, 10. बाजूबन्ध, 11. केयूर, 12. अंगद, 13. दसों अंगुलियों में मुद्रिकाएं, 14. करघनी, 15. कुण्डल, 16. चूड़ामणि और 17. रत्नों से दीप्त मुकुट।" राजा और राज्य व्यवस्था : एक विमर्श राज्य का संचालन करने वाला राजा कहलाता है। राजा प्रजा के योगक्षेम का संवाहक होता है। इसीलिए कौटिल्य ने राजा को ही राज्य की अभिधा दी है। प्राचीन काल में प्रशासन की दृष्टि से राजतंत्र की व्यवस्था ज्यादा प्रभावी थी। ज्ञातधर्मकथा में अनेक राजाओं का उल्लेख है। वहां राजा को महाहिमवान, महान् मलय, मेरु और महेन्द्र पर्वत के समान उन्नत तथा अनेक विद्याओं में विशारद कहा गया है। प्राचीन काल में राज्य का उत्तराधिकारी सामान्यतया राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही होता था। कई बार राजा अपने जीवन के सन्ध्याकाल में अपने पुत्र का राज्याभिषेक कर उसे राजगद्दी पर बिठा देता और स्वयं आत्म-साधना की दिशा में प्रस्थान कर देता। राजा के स्वर्गवास के पश्चात् भी उसके पुत्र का राज्याभिषेक किए जाने की परम्परा थी। राज्य संचालन में अमात्य की भूमिका __राज्य संचालन के कार्य में राजा के बाद अमात्य (महामंत्री) का महत्वपूर्ण स्थान था। राज्य संचालन से संबंधित अनेक मंत्रणाओं व गोपनीय कार्यों में महामंत्री का परामर्श लिया जाता था। राजा श्रेणिक का महामंत्री अभयकुमार था। भारतीय साहित्य में और विशेष रूप से जैन साहित्य में अभयकुमार की बुद्धिमत्ता व कार्यकौशल के अनेक प्रसंग मिलते हैं। प्रस्तुत आगम ग्रंथ में अभयकुमार के विषय में कहा गया है- “साम दंड-भेय- उवप्पयाणनीति सुपउत्त - नय विहण्णु, ईहा-वूह-मग्गण-गवेषण-अत्थसत्थ मइ विसारंए मेढ़ी पमाणं आहारे आलंबणं चक्खू... सव्वकज्जेसु सव्वभूमियासु लद्धपच्चए विइण्णवियारे रज्जधुराचिंतए यावि होत्था।' वह अभयकुमार साम, दण्ड, भेद और उपप्रदान इन चारों नीतियों तथा सुप्रयुक्त नय की विधाओं का वेत्ता था। ईहा, अपोह, मार्गण, गवेषण और अर्थशास्त्र में विशारद मति वाला था। वह राजा के लिए मेढ़ी, प्रमाण, आधार, आलंबन और चक्षु की भांति था। वह सारे कार्यों और सब भूमिकाओं में विश्वसनीय, राजा को सम्यक् परामर्श देने वाला तथा राज्य धुरा का चिन्तक था। महामंत्री सुबुद्धि और तेतलीपुत्र का भी प्रस्तुत आगम में उल्लेख है। तेतलीपुत्र ने अपनी दूरगामी सोच से राज्य को अनाथ होने से बचा लिया। राज्य की सुव्यवस्था में राजा और महामंत्री के अलावा एक पूरा तंत्र सहभागी बनता था। 76 - तुलसी प्रज्ञा अंक 140 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524636
Book TitleTulsi Prajna 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages100
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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