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में एक अध्ययन है - सुसुमा। निर्जन अटवी में धन सार्थवाह और उसके पुत्र भूख और प्यास से व्याकुल हो गए। उस समय उन्होंने मृत बालिका सुंसुमा के मांस व शोणित का आहार किया।
आचार्य महाप्रज्ञ इस कथानक के आमुख में लिखते हैं कि “प्राचीन समय में साधुसंन्यासी के आहार के लिए पुत्रमांसोपमम्' का प्रयोग मिलता है। यहां पुत्र के मांसाहार के स्थान पर पुत्री के मांसाहार की घटना है। पुत्री का मांस खाना एक प्रकम्पित करने वाला वृत्त है। इसमें धन सार्थवाह की विवशता झलक रही है। मुनि के सामने शरीर चलाने की विवशता है। आहार के साथ स्वाद और आसक्ति का संबंध है। इस आसक्ति को दूर कर शारीरिक विवशता की अनुभूति कर आहार करना जटिल विषय है। सूत्रकार ने इस जटिलता को मार्मिक घटना से समझाया है। हम घटना को न पकड़ें। उसके मर्म को पकड़ना ही पर्याप्त है।23 वेशभूषा और अलंकार -
वेशभूषा और अलंकार के द्वारा व्यक्ति के व्यक्तित्व की नई पहचान बनती है। प्राचीन युग में सामान्य लोग जहां सामान्य वेशभूषा धारण करते थे वहीं विशिष्ट लोगों की वेशभूषा भी विशिष्ट तरह की होती थी। राजा श्रेणिक जिन बहुमूल्य वस्त्रों को पहनता, उनके लिए 'दुष्यरत्न' पद का प्रयोग हुआ है। 24 महारानी धारिणी के विषय में उल्लेख आता है - "सिंगारागार चारुवेसा'। उसका सुन्दर वेश श्रृंगार घर जैसा प्रतीत होता था। मेघ कुमार को दीक्षा से पूर्व हंस लक्षण पटशाटक' पहनाया गया। उस वस्त्र का जो वर्णन किया गया है, वह शब्दशः जानने योग्य है -
"नासानीसासवाय-वोझं वरणगरपट्टणुग्गयं कुसलणरपसंसितं अस्सलालापेलवं छेयायरियकणग - खचियंतकम्मं हंसलरवणं पडसाडगं"
वह हंसलक्षण पटशाटक नासिका की निःश्वास वायु से उड़ने वाला, प्रवर नगर और पत्तनों में निर्मित, कुशल पुरुषों द्वारा प्रशंसित, अश्व की लार से भी अधिक प्रतनु, कोमल, किनारे पर दक्ष आचार्यों द्वारा निकाली गई सोने की कढ़ाई से युक्त था।26
उस समय बिछौने पर जो चादर बिछाया जाता वह चर्मवस्त्र, कपास, बूर, वनस्पति और नवनीत के समान कोमल होता था।" उपर्युक्त यह सारा वर्णन प्राचीन भारतीय कला के वैशिष्ट्य को व्यक्त करता है। इस वर्णन के आधार पर कहा जा सकता है कि प्राचीन समय में भी वस्त्र निर्माण की विधा अत्यंत विकसित रूप में थी। उस समय मच्छरदानी का प्रयोग भी प्रचलित था। प्रस्तुत ग्रंथ में सूत्रकार द्वारा प्रयुक्त ‘रतंसुयसंवुए' पद का वृत्तिकार ने मच्छरदानी' अर्थ लिया है।28
अलंकार शरीर की शोभा को द्विगुणित, शतगुणित कर देते हैं। प्राचीन समय में आभूषणों के अनेक प्रकार प्रचलित थे।
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-सितम्बर, 2008 -
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