SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अमंगल परिहार के लिए भी अकार का प्रयोग होता है। विशेषतः आगम-साहित्य में इसके अनेक प्रयोग मिलते हैं- अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना। प्रतिषेध के अर्थ में भी आकार का प्रयोग होता है।21 मंत्र शास्त्र में अकार ___ अकार पौद्गलिक है। वर्ण, गंध, रस और स्पर्श - ये पुद्गल के लक्षण हैं। अकार पौद्गलिक है, इसलिए वह वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-युक्त होता है। वर्ण का एक अर्थ रंग होता है। अकार से हकार पर्यन्त के अक्षर भी वर्ण कहलाते हैं। अकार हेमवर्ण वाला होता है। गंध कुंकुम जैसी और स्वाद नमकीन होता है। 24 नाभि कमल में अवर्ण का 500 बार ध्यान करने वाला एक उपवास के फल को उपलब्ध होता है।25 . तंत्र शास्त्र में अकार का वर्ण शरच्चंद्र तुल्य माना है। कहीं-कहीं इसका वर्ण धूम्र और रक्त भी माना गया है।27 - स्वर स्त्री, पुरुष और नपुंसक तीनों प्रकार के होते हैं। अकार पुलिंग है। तंत्र शास्त्र का भी अभिमत यही है।' पद और पदार्थ में वाच्य, वाच्यार्थ सम्बन्ध होता है। पद के उच्चारण, स्मरण और ध्यान से वाच्य की प्रतीति होती है। फलतः सूक्ष्म व्यवहृत और दूरवर्ती पदार्थ भी मानसिक आकृति के रूप में सम्मुख उपस्थित हो जाता है। मंत्र विद्या के अनुसार अकार विद्यादेवी रोहिणी का वाचक है। इसके ध्यान से रोहिणी का साक्षात्कार होता है। 30 मनुष्य जब बोलना चाहता है, तब संकल्प से प्राण-शक्ति प्रेरित होती है। उसके बाद भाषा के परमाणुओं का ग्रहण, शब्द के रूप में परिणमन और विसर्जन होता है। ग्रहण और परिणमन - ये दोनों भाषा नहीं कहलाते। विसर्जन को भाषा कहा जाता है। 1 भाषा योग्य परमाणुओं का शब्द रूप में परिणमन शरीर के नियत स्थानों में होता है। प्रत्येक शब्द की उत्पत्ति के स्थान निश्चित होते हैं। शब्द शास्त्र के अनुसार मनुष्य जब कुछ बोलना चाहता है तब इच्छा-प्रेरित-वायु नाभि पर आक्रमण कर हृदय आदि किसी स्थान पर प्रयत्न पूर्वक धारण किया जाता है। वह वर्णोत्पत्ति के स्थान पर अभिघात करता है, तब ध्वनि उत्पन्न होती है। प्रज्ञापना में परिणमन और विसर्जन का सिद्धान्त उपलब्ध है, किन्तु उसकी प्रक्रिया का स्पष्ट बोध शब्दशास्त्र और मंत्रशास्त्र में मिलता है। अकार की उत्पत्ति का स्थान नाभि है। मंत्र रचना में अकार ___ मंत्रों की रचना में अकार का महत्त्वपूर्ण योग है। जिन मंत्रों का आदि वर्ण अकार है, वे कुछ मंत्र यहां प्रस्तुत हैं- 1. 'अ, सि, आ, उ, सा' यह पंचाक्षरीय मंत्र हैं। इसका आधार पंच परमेष्ठी मंत्र है। अरहंताणं, सिद्धाणं, आयरियाणं, उवज्झयाणं, साहूणं - इन पांच पदों के पांच आद्याक्षरों के योग से यह मंत्र निष्पन्न होता है। इस पंचाक्षरीय मंत्र का ध्यान पांच चैतन्य-केन्द्रों पर किया जाता है।34 46 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 140 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524636
Book TitleTulsi Prajna 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages100
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy