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________________ शरीर रक्षा के लिए इस पंचाक्षरीय मंत्र का ध्यान सिर आदि अंगों पर किया जाता है - अ-सिर कमल, सि-मुख कमल, आ-कंठ कमल, उ-हृदय कमल, सा-चरण कमल। अ-नाभि कमल, सि-मस्तक कमल, आ-कंठ कमल, उ-हृदय कमल, सा-मुख कमल। परमेष्ठी विद्यामंत्र कल्प में यह कुछ परिवर्तन के साथ भी मिलता है। अ-नाभि कमल, सि-सिर कमल, आ-मुख कमल, उ-कंठ कमल, सा-हृदय कमल। . बीजाक्षरों के साथ भी अ-सि-आ उ सा का प्रयोग किया जाता है, जैसे-ऊँ, हां, ही, हूं, ह्रौं, ह्रः असि आ उ सा नमः।” 2. ऊँ-यह एकाक्षरीय मंत्र है। जैन आचार्यों ने ऊँ को पंच परमेष्ठी (अर्हत्, अशरीरी, आचार्य, उपाध्याय, मुनि) के आद्याक्षरों से निष्पन्न माना है। अ+अ+आ+उ+म् व्याकरण के अनुसार संधि करने पर ऊँ बनता है। वैदिक परम्परा में ऊँ को अ+उ+म् से निष्पन्न माना है। अ- ब्रह्मा, उ-विष्णु, म्-महेश का प्रतीक माना जाता है। अ-पृथ्वी और उसका रंग पीला है। उ- आकाश और उसका रंग बिजली जैसा है। म् स्वर्ग और रंग चंद्रकान्ति जैसा है।9 जैन आचार्यों ने ऊँ की निष्पत्ति 'आ', 'उ' और 'म्' से भी मानी है। 'अ' ज्ञान का 'उ' दर्शन का 'म्' चारित्र का प्रतीक माना जाता है। 40 आ उ म् मुनित्व दर्शन आलोक उपालंभ ज्ञान चारित्र 3. अहँ-इसमें अर ह और बिंदु का योग है। अकार सब जीवों को अभय देने वाला है। अकार का महत्त्व वैदिक परम्परा में भी बहुत मान्य रहा है। गीता में वासुदेव कृष्ण ने कहा-मैं अक्षरों में अकार हूँ।41 तंत्र शास्त्र में अकार को ब्रह्मरूप माना गया है।42 बिंदु युक्त अन्त्य वर्ण के साथ संयोग करने पर अहं बनता है। अहं में अकार सब वर्गों में मुख्य और प्रकाश रूप है।43 जयसिंह सूरि ने अकार को पाप का नाश करने वाला बताया।4 अकार अभयदाता, प्रकाश और पाप नाशक कैसे हो सकता है? यह प्रश्न सहज ही उपस्थित होता है। इसका समाधान मंत्रशास्त्रगत उच्चारण पद्धति से मिल जाता है। अर्ह के अकार का उच्चारण नाभिकमल में होता है। उससे नाभिकंद की ग्रंथि का विदारण होता है। यह मिथ्यादृष्टि की ग्रन्थि है। इसका भेद होने पर सम्यक्दृष्टि उपलब्ध होती है। ह का उच्चारण हृदय देश में होता है। उससे हृदय ग्रंथि का भेदन होता है तथ विरति-दशा (सुप्त-जागृत दशा) प्रकट होती है। अहँ के समग्र उच्चारण पद्धति के लिए स्थापना इस प्रकार की जा सकती है तुलसी प्रज्ञा जुलाई-सितम्बर, 2008 - 47 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524636
Book TitleTulsi Prajna 2008 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages100
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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