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________________ काव्यप्रकाश के अष्टम उल्लास के प्रारम्भ में मम्मट ने गुण और अलंकार का पृथक् पृथक् स्वरूप बताते हुए उनके स्वरूपगत भेद को स्पष्टतः प्रतिपादित किया है। इस स्थल पर मम्मट ने भामह के व्याख्याकार उद्भट के उस मत का खण्डन किया है जिसमें वे गुण व अलंकार, इन दोनों को समवायवृत्त्या काव्य में मानते हैं तथा इस दृष्टि से इनमें अभेद स्वीकार करते हैं। यहाँ माणिक्यचन्द्र सूचना देते हैं कि ऐसा भट्टोद्भट ने भामहवृत्ति में कहा है। इसके साथ ही वे भामहवृत्ति का उद्धरण देते हुए कहते हैं-'शब्दार्थालंकाराणां गुणवत् समवायेन स्थितिः। गड्डरिकाप्रवाहेण तु गुणालंकारभेदोक्तिः' इति भामहवृत्तौ भट्टोद्भटेन भणनम् असत्इस विषय को स्पष्ट करते हुए संकेतकार आगे कहते हैं-तथाहि शृंगारादिरसे गुम्फे प्राच्यस्य अलंकारस्य उत्थापने अन्यस्य च स्थापने गुम्फस्य न दोषः नापि पोषः। न किञ्चिद्वा स्थाप्यते, तथापि न दोषः। तत्र अलंकारस्योत्थापने अन्यस्य च तादृशः स्थापने स्वोक्तं यथा'. ऐसा कहकर अपना निम्न पद्य प्रस्तुत करते हैं - सतामपि महाद्वेषः स्यादेकगुणजीविनाम्। वैमुख्यमेकमालायां यथा सुमनसां मिथः।। (पृ0 188) एक गुणाश्रित सज्जनों का भी परस्पर महाद्वेष हो जाता है, जैसे एक गुण (सूत्र) पर आश्रित फूलों का वैमुख्य ही रहता है। यथा च न किं समुनसां मिथः' इति। शब्दालंकरस्योत्थापने एवमेव । स्वोक्तं यथा - दुष्टः सुतोऽपि निर्वास्यः स्वामिना नयगामिना। ग्रहपंक्तेर्ग्रहाधीशः शनिमन्ते न्यवीविशत्॥ (पृ0 188) यथा च 'विभुना नयशालिना' इति । एवम् अलंकारान्तरेष्वपि ज्ञेयम्। गुणानां तु नैषा युक्तिः। तत्रैव गुम्फे माधुर्यमुत्सार्य ओजोन्यासे दोषप्रसंगात्। नीतिमान् स्वामी द्वारा दुष्ट पुत्र को भी निर्वासित कर देना चाहिए। देखिए- ग्रहाधीश (सूर्य) ने (दुष्ट पुत्र) शनि को ग्रहपंक्ति में सबसे अन्त में भेज दिया। ओज गुण के प्रकरण में माणिक्यचन्द्र ने प्रसंगतः भरतमुनिकृत ओज गुण के लक्षण को नकारते हुए कहा है-'विस्तारो विकासः। तद्रूपदीप्तिजनकमोजसो लक्षणं सत्। न तु हीनमवगीतं वा वस्तु शब्दार्थसम्पदा यदुत्कृष्यते तदोज इति भरतोक्तम्।' भरतमुनि के उक्त लक्षण के खण्डन के पीछे संकेतकार का तर्क यह है कि यदि हीन (अवगीत) वस्तु के शब्दार्थोत्कर्ष में ओज मानते हैं तो अहीन (अनवगीत) के अपकर्षण से होने वाले अनोज को भी गुण मानना पड़ेगा। ऐसा कहकर माणिक्यचन्द्र इन दोनों बातों के समावेश वाला स्वरचित उदाहरण इस प्रकार देते हैं तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2008 - - 81 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524635
Book TitleTulsi Prajna 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages100
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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