________________
परोपकार का स्वरूप- धर्म का सार यह है कि जो अपने लिए हितकर नहीं है वह दूसरों के लिए भी नहीं करना चाहिए!
“श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।" यदि स्वयं मेरे लिए भोग अहितकर हैं तो दूसरों के लिए भोग के साधन जुटाना धर्म कैसे हो सकता है?
जितना उपगार संसार तणाँ छे जे जे करे ते मोह बस जाणों। साध तो त्याने कदै न सरावे संसारी जीव तिणरा करसी बखाणों।।4
मोह की माया अपरम्पार है। जो सांसारिक सुखों की गर्हनीयता प्रतिपादित करते थकते नहीं, वे ही किसी को भोगों की सामग्री अन्न, वस्त्रादि देने को धर्म अहिंसा की कोटि में गिनाने लगें तो तर्क की कसौटी पर यह कैसे खरा उतर सकता था? आचार्य भिक्षु ने रूढ़ि की चिन्ता किए बिना तर्कसंगत तथा उसकी निर्भीक भाव से घोषणा कर दी। जितरा उपगार संसार नाँ, ते तो सगलाई सावध हो।
आचार्य भिक्षु की इस घोषणा से हडकम्प मच गया। गरीब को भोजन खिलाकर और नंगों को कपड़े देकर ही तो सब धर्म का पालन करना मान रहे थे। ऐसे में यह घोषित कर देना कि यह धर्म नहीं है, प्रचलित मान्यताओं की आधारशिला पर ही चोट करना था। लगा कि एक
ओर तो जो अभाव में जी रहे हैं उनकी दान पर चलने वाली आजीविका छीनी जा रही है और दूसरी ओर जो सम्पन्न लोग असहाय लोगों की सहायता करके पुण्य अर्जित कर रहे थे, उन्हें उस पुण्यार्जन से वंचित किया जा रहा है। गरीबी का कारण-हम लोग कार्य को मिटाने की बात सोचते रहते हैं, कारण पर ध्यान नहीं देते। हिंसा एक कार्य है, वह कारण नहीं है। उसका कारण है - सामाजिक और आर्थिक विषमता। उसका कारण है, उच्चवर्ग का विलासिता एवं सुख-सुविधापूर्ण जीवन। उसका कारण है निम्नवर्ग की अपेक्षा। इन कारणों की समाप्ति हो तो हिंसा अपने आप कम हो जाती है।
निर्धनता दूर करने का उपाय भीख देना नहीं है, निर्धनता दूर करने का उपाय यह है कि शोषण-विहीन समाज की स्थापना की जाये। वान की प्रशंसा करना प्रकारान्तर से इस विषमता का ही समर्थन करना है कि एक दाता है और दूसरा भिखारी है। शोषण हिंसा है, विषमता निर्दयता है। शोषण न हो - यह सच्ची अहिंसा है। ‘णो हीणे णो अइरित्ते' वाला विषमता का घोष भगवान् महावीर ने 2600 वर्ष पूर्व दिया। निहित स्वार्थ वालों ने न शोषण बन्द किया, न विषमता को मिटने दिया बल्कि दान को धर्म बताने की आड़ में अपने आपको पुण्यात्मा घोषित कर दिया। जब कार्ल मार्क्स जैसे लोगों द्वारा धर्म को, गरीबों को नशा में सुला देने वाली अफीम बताने के लिए मजबूर होना पड़ा। काश! कार्ल मार्क्स को कहीं आचार्य भिक्षु मिल गये
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2008
61
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org