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इन पंक्तियों को पढ़कर याद आती है उपनिषद् की प्रार्थना - असतो मा सद्गमय, तमसो मा जयोतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय।
मृत्यु जीवन का एक अटल सत्य है और अमृतत्व की इच्छा एक अमिट इच्छा है। मृत्यु धाम में अमृतत्व पाने की यह इच्छा ही किसी अतीन्द्रिय सत्य की खोज बन जाती है, क्योंकि जो कुछ इन्द्रिय-गोचर है वह तो सब मरणशील है, अतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अतीन्द्रिय होना चाहिए। जैसे ही हम इन्द्रिय-गोचर संसार से अतीन्द्रिय के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं, हमारी सामान्य मान्यतायें उलट जाती हैं। इन्द्रियों के जगत में कुछ प्रिय प्रतीत होता है, अतीन्द्रिय जगत् में अश्रेयस्कर लगने लगता है। ऐसे भोग लागै जैसे नाग काले काले हैं। श्रेयस् और प्रेयस- यही श्रेयस् और प्रेयस् का शाश्वत विरोध है - श्रेयश्च प्रेयश्च विपरीततौ - इनका परस्पर विरोध ही नहीं है, इनका फल भी परस्पर विरोधी है - दूरमेतं विपरीते विषची। आचार्य भिक्षु श्रेयस् पथ के अनुगामी थे, इसलिए उन्हें प्रेयस् नहीं सुहाया और जो प्रेयस् के अनुगामी थे, उन्हें आचार्य भिक्षु नहीं सुहाये, तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं है। चाहे तर्क प्रमाण से देखें अथवा आगम-प्रमाण से, जो आचार्य भिक्षु का विरोध करते हैं उसका एकमात्र आधार यह है कि उन्हें प्रेयस् पथ से प्रेम है। कठिनाई यह है कि प्रेयस् पथ के प्रेमी यह सिद्ध करने में लगे हैं कि प्रेयस् की आराधना भी श्रेयस् की ही आराधना है। जो विष को विष जाने और माने, वह कभी विष को छोड़ कर अमृत को पा सकेगा - यह आशा की जा सकती है किन्तु विष को ही अमृत सिद्ध करने पर जो तुला हो, उसके अमृतपान करने की आशा दुराशा मात्र है। भोगासक्ति- इन्द्रियों का जगत् मरणधर्मा है । मृत्यु से हम सब डरते हैं किन्तु मृत्यु के हेतुभूत भोगों को ऐन्द्रिक आकर्षण से कितने लोग मुक्त हो पाते हैं? आचार्य भिक्षु ऐन्द्रिक भोगों की भयंकरता से हमें सावधान कर रहे हैं किन्तु जन्म जन्मान्तर की भोगों की आसक्ति के दृढ़ संस्कारों से कितने लोग छूट पाते हैं? ऐसे में आचार्य भिक्षु का सिंहनाद है -
संसारवाँ सुख तो छ पुद्गल तणों रे, ते तो सुखनिश्चे रोगी ला जाष रे। ते करमाँ बसगमता लागे जीव ने र, त्याँ सुखाँरी बुधिवंत करो पिछाण रे।'
ये पौदगलिक सुखों की आसक्ति ही बन्धन है। किन्तु सामान्य व्यक्ति इन्हीं सुखों की प्रशस्ति गायां करते हैं। जब आचार्य भिक्षु ने इन सुखों की पोल खोली तो राग में पगे व्यक्ति परेशान हो उठे।
एहवां सुखाँ तूं जीवराजी हुवे रे, तिणरे लागे छे पापकरमाँ रो पूर रे। पछे दुःख भोगवे छे नरक निगोदमां रे ,मुगति सुखाँ तूं पडियो दूर रे।।'
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तुलसी प्रज्ञा अंक 139
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