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________________ मनोवैज्ञानिक, परामनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक अनेक क्षेत्रों में दर्शन को चुनौती दे रहे हैं । वैज्ञानिक जगत में शोध और अनुसंधान चल रहा है। दार्शनिक जगत में एक ठहराव आ गया है। पूर्वजों ने जिस सत्य का प्रतिपादन किया, वह एक सीमा रेखा बन गयी। चेतना के अनेक स्तरों की व्याख्या जैसी दर्शनिक कर सकता है, वैसी वैज्ञानिक नहीं कर सकता। विज्ञान अभी तक पदार्थ जगत की सीमा में चल रहा है। उसने चेतना जगत का स्पर्श नहीं किया है अथवा बहुत कम किया है। जैनदर्शन में ज्ञान-मीमांसा का क्षेत्र बहुत विशाल है। संभवतः इतना विशाल किसी भी भारतीय और पाश्चात्य दर्शन में नहीं है किन्तु जैन दार्शनिक मनीषी दार्शनिक जगत के सामने उसे समीचीन प्रणाली में प्रस्तुत नहीं कर पाये हैं। जैन दर्शन सम्मत लेश्या का सिद्धान्त रश्मि-मंडल अथवा आभा-मंडल का सिद्धान्त है। उससे मानवीय जीवन के अनेक रहस्यों को समझा जा सकता है और जीवन की अनेक समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। शोध, अनुसंधान प्रवृत्ति का एक बहुत बडा क्षेत्र है- भावधारा । शरीर, इन्द्रिय, श्वास और मन का संचालन भाव-स्पन्दनों (subtle most vibration of myself) के द्वारा होता है। बुद्धि भी उससे प्रभावित होती है। इस पर विस्तार के साथ दर्शनशास्त्रीय और आचारशास्त्रीय अध्ययन किया जा सकता है। दार्शनिक व्यक्तियों ने स्थूल प्रकम्पनों पर जितना कार्य किया है, उतना सूक्ष्म प्रकम्पनों पर नहीं किया। यदि सूक्ष्म प्रकम्पनों पर कार्य किया जाऐ तो दर्शन को एक नया रूप दिया जा सकता है और कुछ अर्थों में वैज्ञानिक जगत को चुनौती भी दी जा सकती है। मैं चाहता हूँ कि दार्शनिक लोग केवल पूर्वजों के सिद्धान्तों की व्याख्या तक सीमित न रहें, किन्तु नए सिद्धान्तों की खोज करें, जिससे काल की आवलिका में दर्शन रूढ़ न बनें, अपितु गतिशील बनें। लक्ष्य एक, प्रणालियाँ दो, एक का नाम विज्ञान, एक का नाम दर्शन क्या दार्शनिक के लिए जरूरी नहीं है प्रयोगशाला? · विरोधी विचारो में भी शान्तिपूर्ण अस्तित्व संभव है The role of Jainism in Enolving new paradigm of philosophy, २१-२३ फरवरी-०८, जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय,लाडनूं में जैन विद्या एवं तुलनात्मक धर्म दर्शन विभाग द्वारा आयोजित राष्ट्रीय सेमीनार पर प्रदत्त अनुशास्ता का मंगल संदेश 6 - ------- - तुलसी प्रज्ञा अंक 138 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524634
Book TitleTulsi Prajna 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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