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दार्शनिक के लिए जरूरी है प्रयोगशाला
अनुशास्ता आचार्य श्री महाप्रज्ञ
द्रव्य के अनन्त पर्याय हैं। ज्ञात पर्यायों की संख्या सीमित हैं, इसलिए दर्शन का क्षेत्र असीम है। सत्य उतना ही नहीं है, जितना पहले जान लिया गया। सत्य उतना ही नहीं है, जितना आज हम जानते हैं। अज्ञात के महासागर में ज्ञात एक छोटा सा द्वीप है, इसलिए दर्शन की यात्रा निरन्तर चलनी चाहिए। वर्तमान में कुछ दार्शनिकों के विचार अथवा प्रत्यक्षीकरण पर चिन्तन किया जाता है। यदि यह सीमा बन जाए तो दर्शन का विकास नहीं हो सकता और नए नए पर्यायों की खोज भी नहीं की जा सकती। समयचक्र के साथ परिस्थितियां बदलती हैं. अतः स्थिति और भाव धारा में भी परिवर्तन होता है। उस परिवर्तन को दार्शनिक शैली में प्रस्तुत कर हम ज्ञेय की सीमा को व्यापक बना सकते हैं और उसकी सृजनात्मक शक्ति का विकास भी कर सकते हैं। केवल तत्व-मीमांसा दर्शन की सीमा नहीं है। उसके चेतन और अचेतन जगत से संबंध की मीमांसा कर हम उपयोगिता और अनुपयोगिता के क्षेत्र में क्रान्ति कर सकते हैं। जेनिटक के वैज्ञानिक जीन के बारे में नए-नए प्रकल्प प्रस्तुत कर रहे हैं। मनुष्य इसलिए जिद्दी होता है कि जिद्द का भी एक जीन है। कोई लम्बा होता है और कोई नाटा, इसका हेतु भी जीन है। जीवन के जितने पर्याय हैं, उन सबके जीन्स की खोज की जा रही है। जैन-दर्शन में कर्मवाद की गहन अवधारणा है । यदि कर्मशास्त्रीय अवधारणाओं को जीवन के पर्यायों के संदर्भ में प्रस्तुत किया जाए तो जीवन के अनेक रहस्यों को उद्घाटित करने का अवसर मिल सकता है। दर्शन का एक आयाम है विश्व-व्यवस्था के रहस्यों की खोज करना और उनका प्रतिपादन करना। दर्शन का दूसरा आयाम है - मनुष्य के जीवन-रहस्यों की खोज करना, चेतना के रूपों का विश्लेषण करना तथा चेतना की शुद्धि के लिए आचार प्रणाली का प्रतिपादन करना ।
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2008
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