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________________ सृष्टिवाद आचार्य महाप्रज्ञ सत्य को देखने के लिए एक विशेष दृष्टिकोण की अपेक्षा है। हम देखते हैं ह्रसारी दुनिया में कुछ आ रहा है, कुछ जा रहा है। कुछ उत्पन्न हो रहा है, कुछ नष्ट हो रहा है। यह दर्शन हमें अशाश्वत का बोध कराता है, अनित्यता का बोध कराता है। क्या सत्य इतना ही है ? उत्पाद होना, विनष्ट होना हयदि सत्य की यही सीमा है तो बहुत सारे आचार, व्यवहार और सिद्धान्त बदल जाएंगे। यह एक स्वाभाविक जिज्ञासा उभरती है ह क्या इस परिवर्तन के पीछे कोई अपरिवर्तनीय भी है ? अन्तर्दृष्टि, अतिशय ज्ञान अथवा अतीन्द्रिय ज्ञान से देखने पर पता चला हइस अशाश्वत के परदे के पीछे एक कोई शाश्वत भी है। उत्पाद और व्ङ्ग के प्रवाह के पीछे एक ध्रौव्य भी है। देखने की दृष्टि व्यापक बन गयी। जो आँखों से दिखाई दे रहा है या जो तर्क से हमें प्रतीत हो रहा है, सत्य इतना ही नहीं है। इस चक्षु दर्शन से अतीत भी है और तर्कातीत भी है। आगे आकाश बहुत खुला हो गया। व्यापक गति बन गयी कि तर्कातीत भी है। अस्तित्व है, वह इन आँखों से दिखाई नहीं देता। जो अमूर्त है, वह इन आँखों से दिखाई नहीं देता। हमारे दर्शन की एक सीमा है। हम मूर्त को देख सकते हैं और मूर्त में भी स्थूल मूर्त को देख सकते हैं। सूक्ष्म मूर्त को भी नहीं देख सकते। हम तर्क के द्वारा अमूर्त को नहीं जान सकते। आज तक आत्मा, परमात्मा, ईश्वर को तर्क के द्वारा सिद्ध करने का बहुत भारी प्रयत्न किया गया। मेरी दृष्टि में उस प्रयत्न की सार्थकता उतनी ही है, जितनी नींद में आए सपने की। नींद में एक आदमी अच्छा सपना लेता है और जागने के बाद कुछ दिखाई नहीं देता। इससे ज्यादा कोई सार्थकता नहीं लगती। न तर्क के द्वारा आत्मा को सिद्ध किया जा सकता है और न तर्क के द्वारा परमात्मा या ईश्वर को सिद्ध किया जा सकता है। यह तर्क का विषय नहीं है। आचार्य सिद्धसेन ने बहुत अच्छी बात कही थीह्न तत्त्व दो प्रकार का होता है ह हेतुगम्य और तुमसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2008 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524634
Book TitleTulsi Prajna 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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