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उपादान - उपादेय एवं निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध
जिस पदार्थ में कार्य निष्पन्न होता है, उसे उपादेय कहा जाता है तथा निमित्तकारण की अपेक्षा कथन करने पर उसी कार्य (उपादेय) को नैमित्तिक भी कहा जाता है। जो मूर्तिरूप कार्य पाषाण रूप उपादान कारण का उपादेय कार्य है वही मूर्तिरूप कार्य मूर्तिकार रूप निमित्तकारण का नैमित्तिक कार्य है अर्थात् मूर्ति एवं पाषाण में उपादान-उपादेय सम्बन्ध तथा मूर्तिकार एवं मूर्ति में निमित्त- नैमित्तिक सम्बन्ध है। इस प्रकार उपादान-उपादेय सम्बन्ध एवं निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध कारण - कार्य सम्बन्ध के ही रूप हैं जो प्रत्येक कारण-कार्य सम्बन्ध पर अनिवार्य रूप से घटित होते हैं। इसलिए प्रत्येक कार्य नियम रूप से उपादेय भी है
और नैमित्तिक भी है। उपादान एवं निमित्त कार्य की कथंचित् प्रधानता एवं गौणता
अकलंकदेव ने अपने 'तत्त्वार्थवार्तिक' में एक स्थान पर उपादान की प्रधानता से कथन किया है तो दूसरे स्थान पर निमित्तों की प्रधानता से भी कथन किया है। वे लिखते हैंमिट्टी के स्वयं घट होने रूप परिणाम के अभिमुख होने पर दण्ड, चक्र और कुम्हार का प्रयत्न आदि निमित्त मात्र होता है, क्योंकि दण्ड आदि निमित्तों के होने पर भी यदि मिट्टी-कंकर आदि से भरी हो तो स्वयं घट रूप परिणाम के अभिमुख होने से घट रूप नहीं होती। अतः मिट्टी ही बाह्य दण्डादि निमित्तों की अपेक्षापूर्वक अभ्यंतर में घट परिणाम के अभिमुख होते हुए घट रूप होती है, दण्डादि घट रूप नहीं होते।
अतः दण्डादि निमित्तमात्र हैं।17 यद्यपि आचार्य ने इस कथन में उपादान की मुख्यता तथा निमित्तों की गौणता बतलाई है, किन्तु वहीं वे आगे कहते हैं- जैसे मिट्टी घट परिणाम रूप होने के लिए अभ्यन्तर में सामर्थ्य होते हुए बाह्य कुम्भकार दण्ड, चक्र, सूत्र, जल, काल, आकाश आदि उपकरणों की अपेक्षापूर्वक घट पर्याय रूप से प्रकट होती है। अकेली मिट्टी कुम्भकार आदि बाह्य साधनों के मिले बिना घट रूप से होने में समर्थ नहीं हैं। इस प्रकार यहाँ उपादान कारण की सामर्थ्य स्वीकार करते हुए भी उसकी अभिव्यक्ति के लिए बाह्य निमित्तों पर जोर दिया है।
वस्तुतः कार्य न सर्वथा स्वतः होता है, न सर्वथा परतः अपितु प्रत्येक कार्य अन्तरंग अर्थात् उपादान एवं बाह्य अर्थात् निमित्त दोनों कारणों के सम्मेल से होता है। स्पष्ट है कि अकेला उपादान कार्य को करने में असमर्थ है तो वहीं निमित्त उपादान पर आश्रित होते हुए परतन्त्र हैं, इसलिए उपादान एवं निमित्त दोनों ही कार्य के लिए कथंचित् प्रधान एवं गौण है।
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 132-133
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