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________________ जल की खोज में विपरीत दिशा की ओर भागते हैं, यह हमारा मिथ्या दृष्टिकोण है। आगम इसे मिथ्यात्व आश्रव कहते हैं। मिथ्यात्व के सघन अन्धकार में जागृति का प्रकाश कैसे संभव होगा? प्रमाद-अलसता मानसिक तनावों की भीड़ पैदा करती है। धर्म के प्रति अनुत्साह जागता है। यह प्रमाद आश्रव है। कषाय और मन, वचन, शरीर की चंचलता भी कर्मागमन का हेतु बनती है। आत्म-प्रासाद के कर्म-द्वारों को बन्द करने के लिए संवर" की व्यवस्था है। संवर दूषित तत्त्वों को अन्दर जाने नहीं देगा और अन्दर दूषित तत्त्वों को निर्जरा द्वारा साफ कर दिया जाएगा तो चैतन्य कक्ष स्वत: पवित्रता से जगमगा उठेगा । आत्म-स्व-बोध की यात्रा का विकास क्रम बन्धन और मुक्ति का सुव्यवस्थित क्रम उल्लिखित है। स्वबोध की विकास यात्रा-गुणस्थान : जैन मनोविज्ञान आध्यात्मिक विकास की सुव्यवस्थित प्रक्रिया प्रस्तुत करता है। Self realisation का रास्ता, जिसे जैन गुणस्थान कहता है। संसार के चक्र को तोड़कर चेतना सम्पूर्णता को प्राप्त करती है। इसके चौदह सोपान हैं। प्रथम चार तक Self संघर्ष करता है निर्दोषता Perfection को पाने हेतु। चतुर्थ गुणस्थान में 'सम्यक्त्व' प्राप्त होता है। यहाँ आत्मपरिणामों को तीन रूपों में देखा जाता है। जब प्राणी दुर्भेद्य रागद्वेषात्मक ग्रन्थि के लिए संघर्ष करता है तो 'यथाप्रवृत्ति करण' जब उस कर्मग्रन्थि को तोड़ने के लिए संघर्ष करता है तो 'अपूर्वकरण' तथा अपूर्वकरण द्वारा ग्रन्थि का भेदन होने पर उदय में आए मिथ्यात्वपुद्गलों को क्षय करके तथा आने वाले मिथ्यात्व का उपशमन करता है तो 'अनिवृत्तिकरण' होता है। यह बौद्धिक प्रगति है। It does not involve moral effort for self-realisation इन चार Stages की तुलना The parable of the cave's in Plato's Republic में वर्णित कैदी के विकासमान व्यवहारों से की जा सकती है। नैतिक संघर्ष पांचवी Stage से शुरू होता है। विकास यात्रा में आरोह-अवरोह चलता रहता है। 14वां सोपान पूर्ण self-development का है, निर्दोषता की प्राप्ति का यह गुणस्थान वर्णन मनोवैज्ञानिक महत्त्व रखता है। जैन धर्म केवल मानसिक आवेगों का वर्णन ही नहीं करता, साथ में समाधान भी प्रस्तुत करता है। गुणस्थानों के प्रसंग में तीन मनोवैज्ञानिक पद्धतियाँ भी ज्ञातव्य हैं 1. उपशम, 2. क्षयोपशम, 3. क्षायिक। उपशम- इस प्रक्रिया को मनोविज्ञान दमन की प्रक्रिया कहता है। वासनाओं को दबाकर चलने वाला साधक 11 वें उपशान्त मोहनीय गणस्थान तक पहुँचकर भी अचानक उठने वाली कामनाओं से विवश पतनोन्मुख बन जाता है। यह दमन का रास्ता है, विलय का नहीं। क्षयोपशम- इस पद्धति को मनोविज्ञान वृत्तियों का उदात्तीकरण कहता है। यहाँ तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2005 - - 61 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524623
Book TitleTulsi Prajna 2005 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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