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देती है। ये चारों कषाय चतुष्टयी क्रमशः अनन्तानुबन्धी सम्यक्त्व का, अप्रत्याख्यान देशविरति का, प्रत्याख्यान सर्वविरति का तथा संज्वलन वीतरागता का बाधक होता है।
जैन शास्त्रों में मोहनीय कर्म का सूक्ष्म विश्लेषण मनोवैज्ञानिक महत्ता लिए हुए है। व्यक्तित्व विकास का गहन वर्णन दर्पण की भांति कार्यकारण का सार्वभौम सत्य उद्घाटित करता है। राग-द्वेष, जन्म-मरण, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों के मूलकारण तथा निवारण की पूरी व्याख्या इस सन्दर्भ में प्रस्तुत होती है।
जैन दर्शन में कषाय और संवेग का अन्तर ठीक वैसा ही माना गया है, जैसा मनोविज्ञान में मूलप्रवृत्ति और उससे संलग्न संवेग में। क्रोध संज्ञा क्रोध-कषाय से वैसे ही भिन्न है, जैसे आक्रामकता की मूलप्रवृत्ति से क्रोध का संवेग। मनोवैज्ञानिक कर्म मीमांसा :
जैन मनोविज्ञान कर्मशास्त्रीय मीमांसा में शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक स्तर पर घटित सभी घटनाओं का सूत्रधार 'कर्म 27 को मानता है। कर्म, कर्मबन्ध और कर्ममुक्ति की विस्तृत व्याख्या मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में करता हुआ आगे बढ़ता है। रागद्वेषात्मक उत्तापों के कारण कर्मपुद्गलों का आत्मा के साथ जो आश्लेष होता है-वह कर्म बन्ध कहलाता है। यह जीव की बध्यमान अवस्था है। बन्धने के बाद उसका परिपाक होता है, वह सत् अवस्था (सत्ता) है। परिपाक के बाद सुख-दुःख रूप फल मिलता है, यह उदयमान (उदय) अवस्था है। अन्य दर्शनों में कर्मों की क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध तीन अवस्थायें बतलाई गई हैं, उसी प्रकार बन्ध, सत् व उदय जैन दर्शन में कथित है। बन्ध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश- ये चार प्रकार है। कर्मों के आवागमन को जब तक नहीं रोका गया, तक तक समस्या का अन्त नहीं। कर्म का प्रवेश द्वार है- जैन दर्शन की भाषा में 'आश्रव'। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये पांच आश्रव के प्रकार हैं। इनकी मनोवैज्ञानिक व्याख्या मन की व्याख्या है। फ्रायड ने मन के तीन स्तर माने- (1) Id इदम, (2) Ego अहं, (3) Super Ego श्रेष्ठ मन । जैन दृष्टि से अविरति आश्रव मनोविज्ञान का Id इदम् मन है। आन्तरिक असीम महत्त्वाकांक्षाओं से विरत न होना अविरति आश्रव है। आदमी में अविरति जब सीमातीत बढ़ जाती है तब वह बाहर की ओर भागता है मानो सम्पूर्ण संसार का साम्राज्य स्वयं में समेट लेगा। मनोविज्ञान का कहना है कि The thirst of desire is never filled nor fully satisfied जैन सूत्रों का कहना है
कसिणंपि जो इमं लोयं पडिपुण्णं दल्लेज इक्कस्स। तेणापि से न संतुस्से इह, इब्यूरये इमे आया।" प्यास बुझाने के सारे साधन उपलब्ध होते हुए भी हम और अधिक शीतल, मधुर
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तुलसी प्रज्ञा अंक 128
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