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वृतियों की दिशायें बदल जाती हैं। कुछेक आवेगों का दमन, कुछेक आवेगों का क्षय, यह सशक्त मानसिक चिकित्सा पद्धति है। फिर भी रोग का समूलतः नष्ट होना आवश्यक है। अत: जैन-धर्म क्षयोपशम के पश्चात् क्षायिक पद्धति को प्रस्तुत करता है।
क्षायिक- इसमें पूर्णत: आवेगों का अन्त है। यह पद्धति कार्य-कारण की खोज करती है, फिर उनकी चिकित्सा भी। ग्रन्थि-विमोचन की प्रक्रिया :
फ्रायड के अनुसार मन की कामनाओं को चेतन मन का अंह बाहरी मानदण्डों के कारण दमित करता है, उससे ग्रन्थियां बनती हैं और व्यक्ति असामान्य बन जाता है। मनोविज्ञान का सूत्र 'दमन मत करो' यद्यपि ग्राह्य है किन्तु इसका अर्थ 'उन्मुक्त भोग करो' समझने पर धार्मिक और नैतिक जीवन को भी अभिशप्त कर दिया गया। संभोग से समाधि' की स्थापना सामाजिक स्तर पर विषमताओं की भीड़ बन गई। इस सन्दर्भ में नीत्से का कथन कितना सच है कि "सब धर्मों में सेक्स को जहर देकर मारना चाहा, पर वह मरा नहीं। इतना अवश्य हुआ कि जहरीला होकर जीवित हो गया।" जैन-धर्म दमन के साथ उसके Sublimation उदात्तीकरण की बात कहता है। आत्मनियन्त्रण के साथ आत्म शोधन भी जरूरी है। अतः आगम सूत्रों में यत्र-तत्र निर्जरा की व्यवस्था दी है। निर्जरा का शरीरपरक अर्थ है- बूढ़ा न होना। देवता कभी बूढे नहीं होते, इसीलिए उन्हें 'निर्जर' कहा जाता है। मानसपरक अर्थ हैपुराने आवेगों, संस्कारों का निर्जरण-क्षरण करना। जैन निर्जरा के छ: बाह्यभेद (अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी, रसपरित्याग, कायक्लेश, प्रतिसंलीनता) एवं छ: आन्तरिक भेद (प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग)33 करता है। प्रायश्चित्तः शल्य चिकित्सा :
शरीर और मन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । वैज्ञानिक अनुसंधानों से यह सिद्ध हो चुका है कि शरीर की बीमारी बहुत अर्थों में मन की बीमारी है। होम्योपैथिक डॉ. हेनीमेन के शब्दों में - 'मनुष्य की बीमारी उसके मन में नहीं, उससे भी गहरी उसकी आत्मा में है। चरक व्याधि को 'प्रज्ञा का अपराध' कहते हैं। मनोवैज्ञानिक भी शारीरिक चिकित्सा से पहले मन का विश्लेषण करते हैं । जैन-धर्म भी प्रायश्चित्त और प्रतिक्रमण की बात कहता है। दमित इच्छायें ग्रन्थियाँ बनकर सम्पूर्ण व्यक्तित्व को बदल देती हैं। भगवान महावीर इसे 'शल्य' का नाम देते हैं। निःशल्य यानी निर्ग्रन्थ बनने के लिए प्रायश्चित्त की पद्धति अचूक दवा है।
प्रायश्चित्त - कृत अपराधों की शुद्धःमन से स्वीकृति। 'उत्तराध्ययन' में लिखा हैप्रायश्चित्त से जीव अनन्त संसार को बढ़ाने वाले मार्ग में विघ्न उत्पन्न करने वाले निदान तथा मिथ्यादर्शन-शल्य को निकाल फेंकता है और ऋजुभाव को उपलब्ध होता है। छेद सूत्रों में
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तुलसी प्रज्ञा अंक 128
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