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________________ सकारात्मक सुख की ओर -समणी सत्यप्रज्ञा हर प्राणी सुख चाहता है। अधिकतम सुख पाने के लिए वह सदा प्रयत्नशील रहता है और इसके लिए विविध रीतियों का प्रयोग करता है। सुख के संसाधनों पर ध्यान दें तो दो प्रमुख रूप हमारे सामने आते हैं- प्राकृतिक संसाधन और मानव संसाधन। मानव के सुखवादी एवं सुविधावादी दृष्टिकोण ने प्राकृतिक संसाधनों के साथ खिलवाड़ कर पदार्थवाद का प्रासाद खड़ा किया है। प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं। जितनी इच्छाएं हैं, उतना ही व्यक्ति उपभोग कर सके, यह संभव नहीं। इसीलिए तर्कसंगत सुझाव है कि संसाधनों का अनावश्यक प्रयोग न किया जाए। यद्यपि आधुनिक अर्थशास्त्री अधिकतम उत्पादन की बात कहते हैं जो स्पष्टतः संसाधनों के भी अधिकतम प्रयोग से जुड़ी हुई है। विवेकपूर्ण अर्थशास्त्र के संदर्भ में हमें कम से कम उत्पादन की आवश्यकता पर ध्यान देना अपेक्षित है। ___ परिग्रह की परिक्रमा करता हुआ मानव उत्पादन वृद्धि के भ्रमजाल में है। पर इसके अन्य पहलुओं पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। शुंपीटर इसे रचनात्मक विनाश की संज्ञा देते हैं। रचनात्मक विनाश वह मूलभूत आवेग है जो पूँजीवादी इंजन को चालू करता है और उसे गतिशील रखता है। वह नए उत्पादों, उत्पादन या परिवहन के नए तरीकों, नए बाजारों या पूंजीवादी उद्यम द्वारा निर्मित औद्योगिक संगठन के नए रूप आदि से प्राप्त होता है। ये औद्योगिक परिवर्तन की उसी प्रक्रिया को स्पष्ट करते हैं जो आर्थिक संरचना में निरन्तर अंदर से क्रान्ति लाता है, निरंतर पुरानी संरचना को नष्ट करते हुए नए का निर्माण करता है। रचनात्मक विनाश की यह प्रक्रिया पूंजीवाद के बारे में अनिवार्य तथ्य है।' उत्पादन और उपभोग की रफ्तार पर ध्यान दिया जाए तो स्पष्ट है- मनुष्य के पास प्रतिदिन के केवल चौबीस ही घंटे हैं और इनमें वह सीमित उपभोग ही कर 48 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 128 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524623
Book TitleTulsi Prajna 2005 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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