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प्रथम गुणस्थान सभी दण्डकों में पाया जाता है। द्वितीय गुणस्थान स्थावर काय को छोड़कर शेष उन्नीस दण्डकों में पाया जाता है। पाँच स्थावर काय जीव मिथ्यादृष्टि ही होते हैं, अत: वे केवल प्रथम गुणस्थानवर्ती ही होते हैं। तृतीय और चतुर्थ गुणस्थान पाँच स्थावर काय और तीन विकलेन्द्रिय को छोड़कर शेष सोलह दण्डकों में पाया जाता है। तीन विकलेन्द्रिय जीव अपर्याप्त अवस्था में कदाचित सास्वादन सम्यक्दृष्टि हो सकते हैं किन्तु पर्याप्त अवस्था में मिथ्यादृष्टि ही होते हैं । पंचम गुणस्थान में केवल दो दण्डक ही पाये जाते हैं-बीसवां तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय का और इक्कीसवां मनुष्य पंचेन्द्रिय का। श्रावकत्व इन दो दण्डकों में ही पाया जाता है। श्रावक देशव्रताराधक और संवर धर्म का साधक होता है। यहाँ यह विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि तिर्यञ्च श्रावक असंख्याता और मनुष्य श्रावक संख्याता होते हैं। छठे आदि सभी गुणस्थानों में केवल एक ही दण्डक पाया जाता है-इक्कीसवां मनुष्य पंचेन्द्रिय का। श्रमण निर्ग्रन्थ की साधना केवल मनुष्य ही कर पाते हैं। आत्मा से परमात्मा बनने का अद्भुत सामर्थ्य केवल मनुष्य में ही होता है। इन्हीं गुणस्थानवर्ती मनुष्य परमेष्ठी कहलाते हैं।
__ प्रथम गुणस्थानवी जीव कृष्ण पक्षी और शुक्ल पक्षी होते हैं, शेष तेरह गुणस्थानवर्ती जीव केवल शुक्लपक्षी होते हैं । कृष्ण पक्षी शुक्ल पक्षी कैसे बन जाता है? यह जिज्ञासा स्वाभाविक है। सच्चाई यह है कि शुक्ल पक्षी बनने में किसी क्रिया की अपेक्षा नहीं है। जब जीव के मुक्त होने में अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल शेष रह जाता है तो वह शुक्ल पक्षी बन जाता है। यहाँ यह जानना चाहिए कि जीव सम्यक्त्वी और परित संसारी विशेष संयोग मिलने पर होता है किन्तु शुक्ल पक्षी अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल शेष रहने पर हो जाता है। ग्रन्थकार कहते हैं कि मरूदेवी अव्यवहार राशि में ही शुक्ल पक्षी बन गई थी। सम्यक्त्व उन्होनें बाद में प्राप्त की। जिस दिन से उसके अर्द्ध पुदगल परावर्तन काल शेष रहा था, उसी दिन ही वे शुक्ल पक्षी बन गई थी।
सम्पर्क जैन विश्व भारती लाडनूं - 341 306 (राजस्थान)
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2005
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