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यहाँ यह विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि इन गुणस्थानों में क्षायोपशमिक चारित्र आत्मा होती है। ग्यारहवें, बाहरवें और तेरहवें गुणस्थान में कषाय आत्मा को छोड़कर शेष सात आत्मा पायी जाती है। ग्यारहवें गुणस्थान में मोहकर्म का सर्वथा उपशम हो जाता है तथा बारहवें आदि गुणस्थानों में मोह कर्म का क्षय, अत: इन गुणस्थानों में कषाय आत्मा नहीं पायी जाती है । चौदहवें गुणस्थान में कषाय और योग आत्मा को छोड़कर शेष छ: आत्मा पायी जाती है। अयोगी केवली सर्वथा योग मुक्त होते हैं, अत:उनमें योग आत्मा नहीं होती है। संसार के समस्त जीवों में दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य - ये पाँच लब्धियाँ पायी जाती हैं। अन्तर केवल इतना ही है कि छद्मस्थ में ये पाँच लब्धियाँ क्षायोपशमिक भाव है और केवली में क्षायिक भाव ।
प्रथम चार गुणस्थान में बाल वीर्य पाया जाता है । इन गुणस्थानों में अविरति भाव सदा बना रहता है। ये जीव चारों गतियों में पाये जाते हैं और संख्या में अनंतानंत हैं। पाचवें गुणस्थान में बाल पंडित वीर्य पाया जाता है। ये जीव व्रताव्रती या संयमासंयमी होते हैं। ये जीव मनुष्य और तिर्यञ्च- इन दो ही गतियों में पाये जाते हैं और संख्या में असंख्य हैं। छठे से चौदहवें गुणस्थान तक पंडित वीर्य पाया जाता है। ये जीव महाव्रती या संयमी कहलाते हैं। इन गुणस्थानवी जीवों में अविरति भाव समाप्त हो जाता है। ये जीव केवल मनुष्य गति में ही पाये जाते हैं और सदैव संख्याता ही होते हैं। प्रथम गुणस्थानवी जीव मिथ्या दृष्टि ही होते हैं। इन जीवों के दर्शन मोहनीय कर्म का उदय सदा चालू रहता है। इसमें तत्त्व के प्रति विपरीत श्रद्धा बनी रहती है जिसे मिथ्यात्व कहते है। मिथ्यात्वी में पायी जाने वाली दृष्टि की विशुद्धि मिथ्यादृष्टि कहलाती है। यह दर्शन मोहनीय कर्म का क्षयोपशम भाव होने से निरवद्य एवं विशुद्ध है।
__ आचार्य पूज्यपाद के शब्दों में मिथ्यात्व द्विधात्मक है। नैसर्गिक और परोपदेशपूर्वक। दूसरे के उपदेश के बिना मिथ्या दर्शन कर्म के उदय से जीवादि पदार्थों का अश्रद्धानरूप भाव नैसर्गिक मिथ्यात्व है तथा अन्य के निमित्त से होने वाला मिथ्यादर्शन परोपदेशपूर्वक मिथ्यात्व है। तृतीय गुणस्थानवी जीव सम्यक् मिथ्या दृष्टि होते हैं। इसमें प्रथम गुणस्थानवी जीवों की अपेक्षा अधिक उज्वलता होती है। शेष तत्त्वों में यथार्थ विश्वास रखने वाले की दृष्टि सम्यक् मिथ्यादृष्टि होती है। प्रथम और तृतीय गुणस्थान को छोड़कर शेष बारह गुणस्थानवी जीवों की दृष्टि सम्यक् होती है। दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय, उपशम और क्षयोपशम से सम्यक् दृष्टि की प्राप्ति होती है। सास्वादन, वेदक और क्षायोपशमिक सम्यक् दृष्टि क्षयोपशमजन्य है तथा औपशमिक दृष्टि उपशमजन्य है ।
प्रथम गुणस्थानवी जीव भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के होते हैं, शेष गुणस्थानवर्ती केवल भव्य ही होते हैं। यह भव्य जीव एक निश्चित काल में मोक्ष प्राप्त करने वाले हैं। प्रथम गुणस्थानवर्ती भव्य जीव मोक्षगामी और अमोक्षगामी दोनों प्रकार के होते हैं।
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 128
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