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अज्ञान क्षायोपशमिक भाव हैं और वे केवल ज्ञान की बानगी हैं तथा तीन दर्शन क्षायोपयिक भाव है और वे केवल दर्शन की बानगी हैं।
प्रथम छ: गुणस्थान तक छहों लेश्या पाई जाती हैं। छठे गुणस्थान तक अशुभयोग की विद्यमानता होने से सभी लेश्याओं का अस्तित्व असंदिग्ध है । सातवें गुणस्थान में तीन शुभ लेश्या पाई जाती हैं। यह अप्रमाद की स्थिति है, अत: इसमें अनारम्भ अवस्था पाई जाती है। इसमें अशुभ योग न होने से अशुभ लेश्या का अभाव है। आठवें से तेरहवें गुणस्थान तक केवल शुक्ल लेश्या पाई जाती है। इन गुणस्थानों में कर्म प्रकृतियों का क्षय होने से चारित्रिक निर्मलता उत्तरोत्तर बढ़ती चली जाती है। चौदहवें गुणस्थान में लेश्यातीत अवस्था पाई जाती है। इस चरम गुणस्थान में योग नहीं होने से लेश्या भी नहीं पाई जाती है।
प्रथम तीन गुणस्थान में तीन भाव पाये जाते हैं - औदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक। क्षायोपशमिक भाव यत्किंचित आत्म उज्ज्वलता का प्रतीक है, जो संसार के समस्त छद्-मस्थ जीवों में अवश्यमेव पाया जाता है। केवल्य की प्राप्ति होने पर क्षायोपशमिक भाव क्षायिक भाव में परिणत हो जाता है। औदयिक और परिणामिक भाव सभी गुणस्थानों में पाया जाता है। चौथे गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान तक पाँचों भाव पाये जाते हैं। इन गुणस्थानों में औपशमिक सम्यक्त्व और चारित्र होने पर औपशमिक भाव तथा क्षायिक सम्यक्त्व होने पर क्षायिक भाव प्रसूत होता है। क्षीणमोह गुणस्थान में औपशमिक भाव को छोड़कर चार भाव पाये जाते हैं। उपशम केवल मोह कर्म का ही होता है - ऐसा अनुयोगद्वार में भगवान ने बताया है। बारहवें गुणस्थान में मोह कर्म का क्षय हो जाता है, अतः इसमें चार भाव ही संभव है। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में तीन भाव पाये जाते हैं- औदयिक, क्षायिक और पारिणामिक। क्षयोपशम केवल चार घाति कर्मों का ही होता है, ऐसा अनुयोगद्वार में भगवान ने बताया है। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में केवल चार अघाती कर्म शेष रहते हैं, अतः इसमें तीन भाव ही पाये जाते हैं।
मिथ्यादृष्टि गुणस्थान और मिश्र गुणस्थान में ज्ञान और चरित्र आत्मा को छोड़कर छः आत्मा पायी जाती है। ये सम्यक्त्व विरहित गुणस्थान हैं, अतः ज्ञान और चरित्र आत्मा नहीं पाई जाती है। सास्वादन सम्यग् दृष्टि, अविरति सम्यग् दृष्टि और देश विरति गुणस्थान में चारित्र आत्मा को छोड़कर सात आत्मा पायी जाती हैं। पांचवें गुणस्थान में देश चारित्र होता है किन्तु सर्वचारित्र नहीं, अत: चारित्र आत्मा नहीं होती। पंचम गुणस्थानवी जीव असंख्य हैं तथा प्रज्ञापना सूत्र के अनुसार चारित्र आत्मा वाले जीव संख्यात होते हैं, यह तभी संभव है जब इनमें केवल साधुओं की ही गणना की जाए, इस आगमिक तथ्य से पाँचवें गुणस्थान में चारित्र आत्मा सिद्ध नहीं होती है। छठे से दसवें गुणस्थान तक आठ आत्मा पायी जाती है।
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2005
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