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________________ समुद्घात में आठ समय लगते हैं। इन आठ समयों में पहले और आठवें समय में औदारिक काययोग, दूसरे, छठे और सातवें समय में कार्मण के संयोग से औदारिक मिश्रकाय योग तथा तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में कार्मण काययोग होता है । अयोगी केवली में योग का सर्वथा अभाव होता है। तेरहवें गुणस्थान के अन्त में केवलज्ञानी मन, वचन और काय योग का क्रमशः निरोध कर चौदहवें गुणस्थान में निष्प्रकंप अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं , अत: वे निराश्रव, अबंध और अयोगी कहलाते हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान और मिश्रगुणस्थान में तीन अज्ञान और तीन दर्शन -छ: उपयोग पाते हैं। इन दोनों में सम्यक्त्व का अभाव है , अत: इन गुणस्थानवी जीवों का ज्ञान भी अज्ञान कहलाता है। यहाँ अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं किन्तु कुत्सित ज्ञान है। अज्ञान में नञ् समास कुत्सार्थक है। ज्ञान कुत्सित नहीं किन्तु ज्ञान का जो पात्र मिथ्यात्वी है उसके संसर्ग से वह कुत्सित कहलाता है। मिथ्यादृष्टि का ज्ञान मिथ्यात्व सहचरित होता है, इसलिए उसे अज्ञान कहा है। ज्ञान जो अज्ञान कहलाता है, वह मिथ्यात्व के साहचर्य का परिणाम है। जैसे मिथ्यात्व सम्यक्- श्रद्धा का विपर्यय है वैसे अज्ञान ज्ञान का विपर्यय नहीं है। ज्ञान और अज्ञान में स्वरूप भेद नहीं किन्तु अधिकारी भेद है। सम्यक् दृष्टि का ज्ञान ज्ञान कहलाता है और मिथ्यादृष्टि का ज्ञान अज्ञान । इस संदर्भ में श्रीमज्जयाचार्य ने भगवती जोड़ में लिखा है भाजन लारे जाण रे, ज्ञान अज्ञान कहीजिए । समदृष्टि रे ज्ञान रे , अज्ञान मिथ्यादृष्टि तणो ॥ सास्वादन सम्यग्दृष्टि, अविरति सम्यग्दृष्टि और देशविरति गणस्थान में तीन ज्ञान और तीन दर्शन छ: उपयोग पाते हैं। सम्यक्त्वी होने से ये सभी ज्ञानी कहलाते हैं। इन गुणस्थानों में अज्ञान नहीं पाते हैं। सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान को छोड़कर छठे से बारहवें गुणस्थान तक चार ज्ञान और तीन दर्शन -सात उपयोग पाते हैं । इन गुणस्थानों में मनः पर्यव ज्ञान की संभाव्यता है। तीर्थकर जब दीक्षा लेते हैं तब उन्हें नियमत: मनः पर्यव ज्ञान उपलब्ध होता है और वह केवल प्राप्ति से पूर्व तक बना रहता है। मन:पर्यव ज्ञान साधना जन्य उपलब्धि है जो मुनि अवस्था और मुनि वेश में ही प्राप्त होती है । सूक्ष्म संपराय गुणस्थान में केवल चार ज्ञान प्राप्त होते हैं, दर्शन नहीं। गुणस्थान की प्राप्ति साकार उपयोग में ही होती है। इस गुणस्थान का कालमान अत्यल्प है, अत: अनाकार उपयोग आने से पहले ही गुणस्थान का परिवर्तन हो जाता है। इस कारण से सूक्ष्म संपराय गुणस्थान में केवल चार ज्ञान ही प्राप्त होते हैं। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में दो उपयोग पाते हैं- केवल ज्ञान और केवल दर्शन। यह दोनों उपयोग क्षायिक भाव हैं, इसमें शेष सभी उपयोगों का समाहार हो जाता है । महामना आचार्य श्री भिक्षु के शब्दों में चार ज्ञान और तीन 44 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 128 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524623
Book TitleTulsi Prajna 2005 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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