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कर चार भवोपग्राही कर्मों को क्षीण कर देती है और सिद्ध बनकर लोकान्त में अवस्थित हो जाती है।
प्रथम गुणस्थान अनन्तानन्त जीवों का आश्रय स्थान है। इसमें जीव अनन्तानन्त काल तक रह सकता है। इसके अतिरिक्त किसी भी गुणस्थान में जीव अनन्त काल तक नहीं रह सकता है। प्रथम गुणस्थान अभव्य जीव के लिए अनादि और अनन्त है तथा मोक्षगामी। भव्य जीवों के लिए अनादि और सान्त अन्तसहित है। जो जीव मिथ्यात्व को त्याग, सम्यक्त्व प्राप्त कर फिर मिथ्यात्वी बन जाते हैं और उसके बाद सम्यक्त्व को पुनः प्राप्त करते हैं उनकी अपेक्षा से प्रथम गुणस्थान आदि सहित और अन्त सहित है।
गोम्मटसार में प्रथम गुणस्थान को औदयिक भाव माना है किन्तु समवायांग में जीवस्थानों की रचना का आधार कर्म-विशुद्धि बतलाया गया है। कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाणा पन्नता - इस आगम पाठ से प्रथम गुणस्थान औदयिक भाव प्रमाणित नहीं होता किन्तु वह क्षयोपशमिक भाव है। मिथ्यात्वी पुरुष में जो क्षायोपशमिक गुण है उसे मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहते है। इससे स्पष्ट है कि मिथ्यात्वी व्यक्ति की जितनी सही दृष्टि है वह मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। मिथ्यात्वी व्यक्ति में जो मिथ्यात्व है,तत्व ज्ञान के प्रति विपरीत आस्था है वह गुणस्थान नहीं है। मिथ्यात्वी व्यक्ति में जो समता है, दृष्टि और आचरण की शुचिता है उसे ही मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहना चाहिए। मिथ्यात्वी की सही समझ मिथ्यात्व के सही संसर्ग से ही मिथ्यादृष्टि कहलाती है। यहाँ पात्र- विचार से मिथ्यात्वी व्यक्ति में पायी जाने वाली यत्किंचित सम्यक्दृष्टि को मिथ्यादृष्टि कहा गया है। यद्यपि प्रथम गुणस्थान में दर्शन मोहनीय कर्म का उदय रहता है, इससे यदि प्रथम गुणस्थान को औदयिक भाव कहा जाए तो चरित्र मोहनीय कर्म का उदय दसवें गुणस्थान तक रहता है तो क्या इन सभी गुणस्थानों को औदयिक भाव कहा जायेगा? वस्तुत: आत्मा-विशुद्धि की तरतमता पर आधारित होने से ये सभी गुणस्थान औदयिक भाव नहीं है। गोम्मटसार में द्वितीय गुणस्थान -सास्वादन सम्यक् दृष्टि को पारिणामिक भाव कहा गया है किन्तु यह भी यौक्तिक नहीं है। इस गुणस्थान में सम्यक्त्व का किंचित् स्वाद रहता है। इस अपेक्षा से इसे क्षयोपशमजन्य कहना चाहिए। आगमिक दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि प्रथम तीन गुणस्थान क्षयोपशिमक और पारिणामिक भाव है। चौथा गुणस्थान औदयिक भाव छोड़कर चार भावात्मक है। पाँचवे से दसवाँ गुणस्थान क्षायोपशमिक और पारिणामिक भाव है। ग्यारहवां गुणस्थान औपशमिक और पारिणामिक भाव, बारहवां तथा तेरहवां गुणस्थान क्षायिक और पारिणामिक भाव तथा चौदहवां गुणस्थान केवल पारिणामिक भाव है। इस आगम विवक्षा के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सभी चौदह गुणस्थान एकान्त निरवद्य और जिनाज्ञा में है। इतना होने पर भी यदि हेय ओर उपादेय की दृष्टि से विर्मश किया जाए तो यह कहा जा सकता है कि चौदह ही गुणस्थान हेय
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2005
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