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________________ हैं, क्योंकि उन्हे छोड़े बिना मोक्ष नहीं मिलता है और चौदह ही गुणस्थान उपादेय हैं, क्योंकि वे कर्म की विशुद्धि से प्राप्त होते हैं। सापेक्ष चिन्तन के द्वारा यह भी कहा जा सकता है कि चौदह ही गुणस्थानों में पूर्ववर्ती गुणस्थान छोड़ने योग्य है तथा उत्तरवर्ती गुणस्थान स्वीकार करने योग्य है। जैसे छठे गुणस्थानवर्ती श्रमण के लिए पाँचवां गुणस्थान हेय है तथा सातवाँ गुणस्थान उपादेय है। ___ गोम्मटसार में चौदह गुणस्थान को क्षायिक भाव कहा गया है किन्तु यह भी विर्मशनीय है। उसे क्षायिक भाव क्यों कहा जाए ? ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म-इस घाति त्रिक का क्षय तेरहवें गुणस्थान में ही हो जाता है तथा चार भवोपग्राही कर्मों का क्षय चौदहवां गुणस्थान छूटने पर होता है। ऐसी स्थिति में चौदहवें गुणस्थान को केवल पारिणामिक भाव कहना ही युक्तिसंगत लगता है। यह भलीभाँति जानना चाहिए कि चौदहवां गुणस्थान किसी कर्म के द्वारा निष्पन्न नहीं है। नाम कर्म के उदय से जीव के चौदह भेद निष्पन्न होते हैं। इन सभी भेदों में मिथ्या दृष्टि गुणस्थान पाया जाता है। चार गति, पाँच जाति, छ: काय आदि में सर्वत्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान की विद्यमानता है। सास्वादन सम्यग्दृष्टि त्रसकाय के अपर्याप्त और सन्नी पंचेन्द्रिय के पर्याप्त में पायी जाती है। उपशम सम्यक्त्व से च्युत होकर जीव जब नीचे गिरता है -प्रथम गुणस्थान की ओर उन्मुख होता है, तब उस अन्तराल काल में सास्वादन सम्यक्त्व पायी जाती है। मिश्रदृष्टि केवल सन्नी पंचेन्द्रिय के पर्याप्त में ही पायी जाती है। मिश्रदृष्टि तत्त्व के प्रति संदिग्ध अवस्था है। इसमें विचारधारा निश्चित नहीं होती है । सम्यक् और असम्यक् का निश्चय नहीं होता है। यह आत्मा की संदेह सहित दोलायमान अवस्था मनोयोग पूर्वक होती है। अतः मिश्रदृष्टि गुणस्थान में जीव का भेद एक चौदहवां ही पाया जाता है। अविरति सम्यक् दृष्टि सन्नी पंचेन्द्रिय के अपर्याप्त और पर्याप्त दोनों में ही पायी जाती है। सम्यक्त्व अन्तराल गति में भी जीव के साथ रह सकने के कारण वह अपर्याप्त अवस्था में भी उपलब्ध होती है। तीर्थंकर के जीव देव गति या नरक गति से निकल कर जब मनुष्य गति में अवतरित होते हैं तब उनमें अपर्याप्त अवस्था में भी सम्यक्त्व पायी जाती है। इस तरह अपर्याप्त अवस्था में भी चतुर्थ गुणस्थान संभव है, ऐसा चारों गतियों के जीवों में संभव है। पर्याप्त अवस्था में जीव तत्त्व को जानकर अथवा जाति स्मरण ज्ञान आदि के द्वारा सम्यक्त्व को अर्जित कर लेता है। जैसे गणधर गौतम स्वामी ने भगवान महावीर को देशना सुनकर सम्यक्त्व की प्राप्ति की और नन्दन मणिकार ने जाति स्मरण ज्ञान के द्वारा सम्यक्त्व को पाया। देशविरति आदि सभी गुणस्थानों में जीव का भेद एक चौदहवां ही पाया जाता है, क्योंकि व्रत का स्वीकरण केवल पर्याप्त अवस्था में ही किया जा सकता है। दूसरी बात यह है कि अन्तराल गति में सम्यक्त्व साथ में रह सकता है किन्तु चारित्र नहीं,अत: संवरयुक्तं सभी गुणस्थान केवल पर्याप्त अवस्था में ही पाये जाते हैं। 42 - तुलसी प्रज्ञा अंक 128 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524623
Book TitleTulsi Prajna 2005 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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