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बीमारियां तथा स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं का अनेकान्त दृष्टि से समाधान के लिए कर्म सिद्धान्त को गहराई से समझना अपेक्षित है। इसलिए वार्तमानिक परिप्रेक्ष्य में दोनों शास्त्रों का एक-दूसरे के पूरक के रूप में किया जाने वाला अध्ययन हमारे स्वास्थ्य से संबद्ध प्रश्नों का सही और स्थायी समाधान देने में ज्यादा सफल हो सकता है।
आरोग्य के मुख्य घटक हैं-रोग, रोग निदान, रोग मुक्ति और उपाय । कर्म सिद्धान्त में भी इन चारों तत्वों पर प्रकाश डाला गया है। कर्म के आठ प्रकार हैं। उनमें से तीन प्रकारमोहनीय कर्म, वेदनीय कर्म और नाम कर्म का प्रत्यक्ष और परोक्ष संबंध हमारे स्वास्थ्य से है। कर्म का रोग पर प्रभाव
कर्म के आठ प्रकारों में से तीन कर्मों का सीधा सम्बन्ध बीमारियों के साथ प्रतीत होता है। कर्म विज्ञान के अनुसार असात वेदनीय कर्म मानसिक, शारीरिक दुःख, व्याधि, जन्म, जरा, मरण आदि दुःखों का हेतु बनता है। मोहनीय कर्म मनोकायिक, चैतसिक, कायिक भावात्मक आधि और उपाधि का कारणभूत है।' शुभ और अशुभ नाम कर्म शरीर और मन की सुखद और दुःखद अनुभूति का माध्यम बनता है।
कर्म सिद्धान्त की इस अवधारणा को हम आयुर्वेद के सन्दर्भ में देखें तो वहां चरकऋषि द्वारा वर्णित "प्रज्ञापराध" का वर्णन प्राप्त होता है।
चरक सूत्र में चरक ऋषि ने "प्रज्ञापराध' कर्म के सन्दर्भ में लिखा हैइन्द्रियोत्क्रमोक्तस्य सवृत्तस्य च वर्जनम्। ईर्ष्या-मान-भय-क्रोध-मोह मद्भमाः॥ तज्जं वा कर्म यतक्लिष्टं यद्वा तद्देहकर्म च। यच्चान्यदीदृशं कर्म रजोमोहसमुत्थितम्। प्रज्ञापराधं तं शिष्टा ब्रुवते व्याधिकारणम्॥
बुद्धिकृत अपराध को ही शिष्टजन प्रज्ञापराध कहते हैं जो रोग उत्पन्न करते हैं। विद्वानों या बुद्धिजीवियों का उत्तेजित होना तथा उत्तेजना को बलपूर्वक रोकना, निरन्तर साहस के कार्यों में संलग्न रहना और अतिशय स्त्री प्रसंग करना, निर्धारित कार्यकाल का उल्लंघन करना, कार्यो का मिथ्याभिमान, विनय और आचार का लोप, पूज्य व्यक्तियों का अपमान, अहितकर विषयों का सेवन, असमय आदेश का प्रसारण, क्लेश-कारक कर्म करने वालों के साथ मैत्री, इन्द्रियों को संयत रखने वाले सदाचार का त्याग, ईर्ष्या, मान, भय, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मनोभ्रान्ति अथवा इन सबसे सम्बद्ध क्लेशकारक कर्म या दैहिक कर्म या फिर इस प्रकार के अन्य कर्म जो मोह से उत्पन्न हो, ये सब कर्म प्रज्ञापराध कहलाते हैं।
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तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2005
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